शरीर में प्राकृतिक रूप से बनने वाला एक प्रोटीन किसी कारणवश हड्डी से जुड़ी मांसपेशी को होने वाले नुकसान (लॉस ऑफ स्केलेटल मसल मास) की भरपाई कर सकता है। यह कंडीशन आमतौर पर बढ़ती उम्र के साथ पैदा होती है। हालांकि न्यूरोडीजेनरेटिव या इन्फ्लेमेटरी डिजीज अथवा आईसीयू में लंबे समय तक रहने वाले लोगों में भी हड्डी से जुड़ी मांसपेशी के कम या खत्म होने जैसे नुकसान देखे जा सकते हैं। लेकिन अब ब्राजील की यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ पाउलो (यूओएसपी) के शोधकर्ताओं द्वारा पहली बार अध्ययन के आधार पर कहा गया है कि इस समस्या से निपटा जा सकता है।
खबर के मुताबिक, अध्ययन से जुड़े लेखक और यूओएसपी में फिजियोलॉजी विभाग के प्रोफेसर लुइज नेवेगेंटेज ने बताया है, 'हमने साबित करके दिखाया है कि (शरीर में प्राकृतिक रूप से मौजूद) काइनेस ए प्रोटीन (पीकेए) की मात्रा ज्यादा करने से चूहों में मसल्स लॉस (मांसपेशी में रुकावट) की समस्या को सुधारा जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पीकेए फॉक्सओ प्रोटीन को दबाने और मसल्स फाइबर्स के फॉर्मेशन को बढ़ाने दोनों ही काम करता है। इसके फलस्वरूप कुछ विशेष मांसपेशियों के खत्म होने की प्रक्रिया काफी हद तक रुक जाती है और उनमें बढ़ोतरी होती है।'
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इस अध्ययन के परिणामों को मेडिकल पत्रिका फेडरेशन ऑफ अमेरिकन सोसायटीज फॉर एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी जर्नल (फासेब जे) ने प्रकाशित किया है। साथ ही, एट्रोफी से मांसपेशी की सुरक्षा करने वाले ड्रग्स की खोज में मदद का भी प्रस्ताव रखा है। एट्रोफी का मतलब है कोशिका, मानव अंग या ऊतक का आकार कम होना। कुछ मेडिकल कंडीशन के चलते यह समस्या पैदा हो सकती है, जैसे कार्डियक हाइपरट्रोफी, हार्ट अटैक आदि। मांसपेशी में पीकेए के फायदों का उल्लेख करते हुए प्रोफेसर लुइज ने बताया कि इस प्रोटीन में उत्तेजक एनाबॉलिज्म और ताकत होती है, जो इसे पहले से ज्ञात अन्य सभी प्रोटीनों से अलग बनाती है। प्रोफेसर ने कहा, 'इसी कारण इसे (पीकेए) न्यूरोमस्क्यूलर डिसीज और पैथोलॉजिकल कंडीशंस, जिनसे मांसपेशियां कमजोर पड़ती हैं और मसल एट्रोफी की समस्या होती है, के ट्रीटमेंट से जुड़े अध्ययन में बतौर रणनीतिक लक्ष्य और उद्देश्य बनाने का फैसला किया गया।'
अध्ययन में स्केलेटल मसल लॉस के संभावित प्रतिरोधक और समाधान के रूप में पीकेए का चयन किया गया। शोधकर्ताओं ने सिलेक्टिव जीन ट्रांसफर का इस्तेमाल करते हुए इस प्रोटीन से विशेष प्रकार की मांसपेशी को टार्गेट किया। वहां सर्कुलेटिंग हार्मोन के रूप में एड्रेनालाइन एक सिग्नल पीकेए को भेजता है, जो मांसपेशी के अंदर साइटोसोल (एक इंट्रासेल्युलर फ्लूड) में मौजूद होता है। सिग्नल मिलने पर पीकेए उत्तेजित हो जाता है, जिससे मसल एट्रोफी से जुड़े जीन्स का सप्रेशन शुरू हो जाता है।
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पीकेए के प्रॉडक्शन से जुड़े वंशाणुओं को एक्टिवेट करने के लिए शोधकर्ताओं ने इलेक्ट्रोपोरेशन तकनीक का इस्तेमाल किया। ऐसा सभी कोशिकाओं के साथ नहीं, बल्कि केवल एक सिंगल मसल के साथ किया गया। इस मेथड में एक प्लैसमिड को इलेक्ट्रिक पल्स द्वारा मांसपेशी के अंदर डाला गया। वहां पीकेए ने मसल फाइबर के डीएनए को मोडिफाई करने का काम किया। प्रोफेसर लुइज ने बताया कि इस तकनीक को जीवित जानवरों से जुड़े हाइपोथीसिज को साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। उन्होंने बताया, 'इसमें आप लक्षित मांसपेशी पर पल्स को अप्लाई करते हैं और उसके जीन्स को मोडिफाई करने के लिए (जीन एडिटिंग के जरिये) प्लैसमिड को शामिल करते हैं ताकि वांछित प्रोटीन बनना शुरू हो, जोकि इस मामले में पीकेए था। इस तरह आप चयनित तरीके से किसी विशेष स्केलेटल मांसपेशी में हस्तक्षेप कर सकते हैं, (जानवर के) ऊतकों में बदलाव किए बिना।'
शोधकर्ताओं का दावा है कि उनके ऐसा करने पर पीकेए की मात्रा बढ़ी और ऑक्सिडेटिव फाइबर कन्वर्जन में भी वृद्धि हुई, जिससे आखिरकार मसल लॉस के प्रतिरोध में सुधार देखने को मिला। इस प्रक्रिया की पुष्टि के लिए वैज्ञानिकों ने ठीक उल्टा प्रयोग भी किया। उन्होंने पीकेआई नामक मॉलिक्यूल को इंट्रोड्यूज कराकर देखा कि उसने पीकेए की मसल फेटिज के खिलाफ प्रतिरोधक प्रक्रिया को रोक दिया था। इससे एट्रोफी संबंधित जीन्स एक्टिवेट हो गए और फाइबर युक्त मसल एरिया में कमी होने लगी। इस पर वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज कि पीकेए मसल फाइबर्स को प्रोटेक्ट करता है, स्केलेटल मसल लॉस के इलाज के लिए ड्रग डेवलेपमेंट का काम कर सकती है।