टीबी को क्षयरोग या राजयक्ष्मा के नाम से भी जाना जाता है। टीबी की बीमारी में थकान, हल्का बुखार, रात में पसीना आना, भूख और वजन में कमी जैसे लक्षण नज़र आते हैं। इसके अलावा किस अंग में टीबी में हुआ है, इसके आधार पर अन्य लक्षण सामने आ सकते हैं। आमतौर पर टीबी सबसे ज्यादा फेफडों को प्रभावित करता है और इसके लक्षणों में शाम के समय बुखार आना, खांसी, गला बैठना, रात में पसीना आना, भूख एवं वजन में कमी, सीने में दर्द, हथेलियों तथा पैरों के तलवों में जलन शामिल हैं।
टीबी के आयुर्वेदिक उपचार में स्नेहन (तेल लगाना), स्वेदन (पसीना निकालने की विधि), वमन (औषधियों से उल्टी करवाने की विधि) और विरेचन (दस्त की विधि) की सलाह दी जाती है।
हालांकि, ये चिकित्साएं सिर्फ उन मरीज़ों में प्रभावित होती हैं जिनमें दोष खराब या असंतुलित हुए हैं और जिनमें इन्हें सहन करने की क्षमता तथा ताकत हो। कमजोर व्यक्ति पर शोधन कर्म (शुद्धिकरण चिकित्सा) का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और टीबी से ग्रस्त मजबूत व्यक्ति पर भी हल्के शोधन का इस्तेमाल करना चाहिए।
ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि टीबी की बीमारी में सभी सात धातुओं का क्षय (नुकसान) हो जाता है। शरीर को मजबूती प्रदान करने के लिए बृंहण (पोषण) उपचार दिया जाना चाहिए। हालांकि, इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि इससे धातु अग्नि प्रभावित न हो।
टीबी को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ी बूटियों में विदरिकंड, ब्राह्मी, रसोनम (लहसुन), यष्टिमधु (मुलेठी), अश्वगंधा और गुडूची शामिल हैं। आयुर्वेद में टीबी को नियंत्रित करने के लिए औषधियों में एलादि चूर्ण, सितोपलादि चूर्ण, चित्रक-हरीतकी, महालक्ष्मी विलास रस, च्यवनप्राश अवलेह, द्राक्षारिष्ट, धनवंतरा गुटिका, भृंगराजासव, सुवर्णमालिनी वसंत, मधुमालीनी वसंत और वसंत कुसुमाकर का उल्लेख किया गया है।