क्या आप अपना जीवन बिना आंखों के सोच सकते हैं? क्या आप यह कल्पना कर सकते हैं कि अपने आसपास के लोगों या वस्तुओं को न देख पाने पर जीवन कैसा होगा? नहीं, न! अब जरा सोचिए कि एक नवजात शिशु जो अपनी माता या पिता को नहीं देख पाता उसका जीवन कैसा होगा। नवजात शिशुओं में अंधापन होने से उसकी वृद्धि और विकास बहुत अधिक प्रभावित होता है। 

शिशुओं में यह प्रीनेटल (जन्म से पहले), पेरीनेटल (गर्भावस्था के 28वें हफ्ते से जन्म के बाद पहले माह में) या पोस्ट नेटल (जन्म के बाद) हो सकता है। 

प्रीनेटल कारणों में एनफथेलमस, माइक्रोथैलमोस, कोलोबोमा और कंजेनिटल कैटरेक्ट। कुछ रेटिनल डिस्ट्रॉफी जैसे इन्फेंटाइल ग्लूकोमा और कंजेनिटल क्लॉउडी कॉर्निया से भी शिशु की दृष्टि प्रभावित हो सकती है।

पेरीनेटल अवस्था में आंखों की स्थितियां जैसे कोर्टिकल इम्पेयरमेंट, ओफ्थल्मिया नियोनेटोरम (नवजात शिशु को मोतियाबिंद) और रेटिनोपैथी ऑफ़ प्रीमेच्योरिटी से शिशुओं में अंधापन हो जाता है। जन्म के बाद की स्थितियों से भी शिशु के देखने की क्षमता प्रभावित हो सकती है।

जल्दी परीक्षण से, मेडिकल ट्रीटमेंट से और लगातार नेत्र विशेषज्ञ से मिलकर शिशु को स्थायी रूप से होने वाले अंधेपन से बचाया जा सकता है।

शिशुओं में गंभीर रूप से हुए दृष्टि क्षीणता के लक्षण

शिशुओं में कुछ ऐसे लक्षण दिखाई देते हैं जो माता-पिता पहचान सकते हैं -

  • यदि जन्म के छह से आठ हफ्तों बाद भी शिशु माता-पिता की तरफ देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा है और न ही उनकी तरफ देख रहा हो।
  • शिशु आंखों के साथ संपर्क नहीं बना पा रहा हो या भिन्न रोशनी व चीजों को नहीं देख पा रहा हो, विशेषकर शुरुआत के तीन महीनों में।
  • चार महीनों के बाद माता-पिता शिशु में भेंगापन या आंखों का ठीक तरह से न बना होना या बाहर की तरफ निकलना आदि चीजें देख सकते हैं।
  • शिशु की आंखें या तो बहुत छोटी या बहुत बड़ी दिखाई दे सकती हैं।
  • शिशु की आंखों की पुतली सफेद, धुंधली या पीली दिखाई देना।
  • शिशु की आंखों की पुतली का विषम होना (कहीं देखने पर पुतलियों का अलग-अलग दिशा में होना)।
  • शिशु की किसी भी एक आंख की पलकों का सूखा होना (प्टोसिस)।
  • शिशु के आंखों की पुतलियां अनायास घूमती दिखाई दे सकती हैं, इस स्थिति को निस्टाग्मस कहते हैं।
  • शिशु आंखों को लगातार हिलाता हुआ या पलक झपकाता हुआ दिखाई दे सकता है।
  • रात में बहुत अधिक रोना। (और पढ़ें - बच्चों को चुप कराने का तरीका)
  • शिशु को इधर-उधर हिलने में डर लगना और शिशु की गतिविधियां कम दिखाई देना।

डॉक्टर शिशुओं में इनके अलावा अंधेपन के निम्न लक्षण देख सकते हैं -

  • पहली बार डॉक्टर के पास जाने में, डॉक्टर आंखों में लाल रंग की छाया (रेड रिफ्लेक्स) देख सकते हैं। रेड रिफ्लेक्स का मतलब है आंखों के पीछे से आने वाली लाल-संतरी रंग की (फंडस)। फंडस को ऑप्थल्मोस्कोप या रेटिनोस्कोप द्वारा परीक्षण करने पर नजर आता है।
  • पहली बार में डॉक्टर को शिशु का कॉर्निया (आंख की बाहरी परत) धुंधला दिखाई दे सकता है या आंखों में मौजूद जेल भी धुंधला दिखाई दे सकता है।
  • शिशु का आंखें न मिला पाना।
  • आंखों का आकार असामान्य होना जो कि ग्लूकोमा की तरफ संकेत करता है।
  • पलकों का सूखा होना (प्टोसिस)।
  • डॉक्टर को शिशु के जन्म के छह महीने बाद भी स्ट्रबिस्मुस के संकेत दिखाई दे सकते हैं। स्ट्रबिस्मुस एक स्थिति है, जिसमें आंखें ठीक दिशा में नहीं होती हैं, इसीलिए शिशु में भेंगापन हो सकता है।
  • शिशु अपने परिवारजनों को चेहरे से नहीं बल्कि आवाज से पहचानता है।
  1. शिशुओं में दृष्टि क्षीणता के कारण - Shishuon ko Dikhaai na dene ke Karan
  2. शिशु में जन्म के बाद आंखों की समस्या - Shishuon me Janam ke baad Aankhon se Sambandhit Samasya
  3. शिशुओं में आंखों की समस्या में डॉक्टर क्या करेंगे - Shishuon me Aankhon ki Samasya me Doctor ki Bhoomika
  4. शिशुओं में आंखों संबंधित समस्या का इलाज - Shishuon me Aankhon se Judi Samasya ka Upchar
  5. शिशुओं में अंधेपन से बचाव के लिए कब कराएं आंखों का चेक अप - Shishuon ki Aankhon ka Check up kab Karwaye
  6. शिशु की आंखों से जुड़ी समस्या में ध्यान रखने योग्य बातें - Shishu ki Aankho ke bare me Dhyan Rakhne Yogya Baatein
शिशुओं में नेत्र समस्याएं के डॉक्टर

शिशुओं में दृष्टि क्षीणता के कारण तीन अवस्थाओं में पैदा हो सकते हैं। ये तीन अवस्थाएं प्रीनेटल (जन्म से पहले), पेरीनेटल (गर्भावस्था के 28वें हफ्ते में) या पोस्ट नेटल (जन्म के बाद) हैं।

प्रीनेटल कारण
आंखों से संबंधित कुछ स्थितियां हैं, जिसके साथ शिशु पैदा हो सकता है। इससे गंभीर दृष्टि क्षीणता और अंधापन हो सकता है। शिशुओं में दृष्टि क्षीणता के प्री नेटल कारण निम्न हैं -

जन्मजात विकृति -

आंखों की बनावट में कुछ विकृति जिससे शिशु को अंधापन या दृष्टि क्षीणता हो सकती है -

  • एनोफ्थलमॉस - यह एक दुर्लभ जन्मजात विसंगति है, जिसमें शिशु बिना एक या दोनों आंख के पैदा होता है। 
  • माइक्रोप्थलामिया - यह एक डेवलपमेंटल विकार है जिसमें शिशु की आंखें आकार में छोटी होती हैं, जो कि बाद में विकृत हो सकती हैं। 
  • कोलोबोमा - यह आंखों की असामान्यता है, जिसमें आंख की परत पर पाए जाने वाले ऊतक का कोई हिस्सा गायब होता है। यह आंखों में निशान या गैप की तरह दिखाई देता है
  • परसिस्टेंट फीटल वेस्क्युलेचर (पीएफवी) - विकास की अवस्थाओं में आंख एक सुरक्षित जाल से ढका होता है, जिसे ट्यूनिका वस्कुलोसा लेंटिस कहा जाता है। इनमें आपस में नसों का जुड़ाव होता है। ह्यलोइड आर्टरी शिशु की आंख को बीसवें हफ्ते तक रक्त पहुंचाती है। आमतौर पर (आर्टरी और जाल) जन्म से पहले सूख जाती हैं, लेकिन पीएफवी के मामले में ये सिस्टम और रक्त वाहिका कार्य करना बंद कर देती है  जिसके कारण आंखों की बनावट असामान्य होती है और दृष्टि खराब हो जाती है।

जन्मजात मोतियाबिंद
कुछ बच्चों की आंख के लेंस में जन्म से ही धुंधलापन होता है इसे कंजेनिटल कैटरेक्ट कहते हैं। यदि इसका जल्दी परीक्षण व इलाज न किया जाए तो इससे हमेशा के लिए रोशनी जा सकती है। 

इन्फेटाइल ग्लूकोमा (शिशु मोतिया)
जब आंखों के सामने के भाग में मौजूद एक्वस द्रव आंखों से नहीं निकल पाता है तो इससे आंख में दबाव बढ़ जाता है। इन्फेटाइल ग्लूकोमा में प्रभावित आंख इंट्राओक्युलर दबाव के कारण बड़ी हो जाती है और स्क्लेरा (आंख का सफेद भाग) व कॉर्निया असामान्य रूप से बढ़ जाता है।

रेटिनल डिस्ट्रॉफी
रेटिना की जन्मजात स्थितियां आमतौर पर पुरानी होती हैं। ये तेजी से बढ़ती हैं और दृष्टि को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। शिशुओं में सबसे सामान्य रूप से देखी जाने वाली रेटिनल डिस्ट्रॉफी रेटिनिटिस पिगमेंटोसा है। आनुवंशिक अंधेपन से पीड़ित प्रत्येक 5000 में से एक शिशु रेटिनिटिस पिगमेंटोसा से पीड़ित होता है।

पेरीनेटल कारण

आंखों से संबंधित कुछ स्थितियां शिशुओं को डिलीवरी के समय या जन्म के एक हफ्ते में प्रभावित कर सकती हैं।  शिशुओं में जन्म के बाद दृष्टि क्षीणता के निम्न कारण हो सकते हैं। 

  • ओफ्थल्मिया नियोनटोरम - ओफ्थल्मिया नियोनटोरम कंजक्टिवाइटिस है जो कि जन्म के 28 दिनों में शिशु को होता है। यह किसी वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण के कारण हो सकता है यह संक्रमण अधिकतर माता के शरीर से शिशु में जाता है। ऐसा तब होता है जब शिशु वजाइनल डिलीवरी में बर्थ कैनाल द्वारा निकल रहा होता है। नियोनेटल कंजक्टिवाइटिस के दो सामान्य कारण है गोनोरिया और क्लैमिडिया। ये दोनों ही यौन संक्रामक रोग हैं, यदि इनका इलाज न किया जाए तो यह तेजी से फैल कर कॉर्निया को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं और स्थायी रूप से दृष्टि क्षीणता हो सकती है।
  • रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमच्यॉरिटी - रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमच्यॉरिटी या आरओपी आंख का एक रोग है जो कि प्रीमेच्योर शिशुओं में देखी जाती है। प्रीमेच्योर शिशु वे होते हैं जो गर्भवस्था के 37 हफ्ते में पैदा होते हैं। जब रेटिना तक रक्त पहुंचा रही रक्त वाहिका एक समय पर आकर बढ़ना बंद हो जाती है और फिर असामान्य रूप से बढ़ने लगती है तो आरओपी की स्थिति पैदा होती है। ये नई वाहिकाएं कमजोर होती हैं और रिस सकती हैं जिसके कारण रेटिना पर निशान पड़ सकता है। गंभीर मामलों में कमजोर वाहिकाओं के कारण रेटिना अलग हो सकता है जिससे अंधापन की स्थिति हो सकती है। 
  • न्यूरोलॉजिकल स्थितियां - नसों में विकृति जो कि प्री मेच्योर शिशुओं में सामान्य है। जिन न्यूरोलॉजिकल स्थितियों से शिशुओं में दृष्टि क्षीणता हो सकती है वे निम्न हैं -

    • ऑप्टिक नर्व लेशन्स - ऑप्टिक नर्व के क्षतिग्रस्त होने से आधा या पूरी ही दृष्टि हीनता हो सकती है। 
    • सेरिब्रल विज़ुअल इम्पेयरमेंट (सीवीआई) - यह हम सभी जानते हैं कि जब हमारी आंखें कुछ भी देखती हैं तो दृश्य मार्ग से सिग्नल मस्तिष्क को भेजती हैं इसके बाद मस्तिष्क उसका चित्रण करके आंखों को वापस भेजता है और हम चीजें देख पाते हैं। सीवीआई में मस्तिष्क जानकारी को ठीक तरह से नहीं ले पाता जिससे दृष्टि क्षीणता हो जाती है।
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ऐसी कुछ आंखों से संबंधित स्थितियां हैं जो शिशु को प्रभावित करती हैं। केराटोमलेसिए जन्म के बाद शिशुओं को प्रभावित करने वाली सबसे सामान्य स्थिति है।

केराटोमलेसिए आंखों का एक विकार है, जिसमें विटामिन ए की कमी के कारण कॉर्निया सूख और धुंधला हो जाता है।

यदि आपको शिशु की आँख में किसी भी तरह की समस्या के लक्षण दिखाई देते हैं तो उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाएं। जल्दी परीक्षण और सही मेडिकल ट्रीटमेंट से स्थायी रूप से अंधेपन को होने से बचा सकते हैं। यदि आपके परिवार में लोगों को आंखों से संबंधित समस्याएं हैं तो ऑप्थल्मोलॉजिस्ट से संपर्क करें।

आपके शिशु में किसी भी तरह की दृष्टि क्षीणता का पता लगाने के लिए -

  • आपके पीडियाट्रिशियन शिशु के कॉर्निया, एंटीरियर चैम्बर, लेंस और प्यूपिल की नसों को देखेंगे।
  • किसी भी तरह की दृष्टि संबंधी असामान्यता, कंजेनिटल कैटरेक्ट, एडवांस्ड आरओपी का पता लगाने के लिए रेड रिफ्लेक्स की जांच की जाती है।
  • डॉक्टर हैंड हेल्ड स्लिट लैंप (आंखों की जांच में प्रयोग किया जाने वाला एक उपकरण) से भी शिशु की आंख का परीक्षण कर सकते हैं।
  • डॉक्टर पुतली को बढ़ाने के लिए एट्रोपिन का प्रयोग भी कर सकते हैं, ताकि ठीक तरह से परीक्षण किया जा सके। यदि आपका शिशु अभी व्यथित या बहुत रो रहा है, टेस्ट नहीं करवा पा रहा है तो घबराएं नहीं, क्योंकि टेस्ट कुछ घंटो बाद किया जा सकता है।
  • नौ प्रमुख दिशाओं में शिशु के देखने की योग्यता का पता लगाने के लिए डॉक्टर जंपोलस्की (एक मनोचिकित्स्क) का “वन टॉय- वन लुक” सिद्धांत अपना सकते हैं। इसके लिए डॉक्टर खिलौनों, भड़कीले रंगों, रंग-बिरंगी वस्तुओं और यहां तक कि मोबाइल फोन का प्रयोग भी कर सकते हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिस भी वस्तु का प्रयोग किया जाए, उसमें कोई आवाज न हो क्योंकि शिशु आवाज के प्रति आकर्षित हो सकता है, जिससे परीक्षण का उद्देश्य प्रभावित हो जाएगा।
  • अन्य टेस्ट जिसे वर्थ आइवरी बॉल टेस्ट कहते हैं का प्रयोग भी छह महीने की उम्र तक किया जा सकता है। इस टेस्ट में डॉक्टर छोटी सुंदर रंगों की मिठाइयों का प्रयोग कर सकते हैं जो कि आमतौर पर केक को सजाने के काम आती हैं, ताकि यह देखा जा सके कि शिशु उन्हें उठाने का प्रयास कर रहा है या नहीं।
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दृष्टि बाधित शिशु को ठीक करने की उम्मीद कम होती है। यदि जन्म के छह महीनों में इलाज नहीं किया जाता है तो शिशु में बाइनोकुलर विज़न बनने लग जाता है। बाइनोकुलर विज़न में, शिशु स्ट्रबिस्मुस से पीड़ित होता है। इसके अलावा एक आंख से कम दिखना और किसी भी वस्तु को देखकर पहचानने की क्षमता कम हो जाती है। इसके अलावा यदि शिशु का जल्दी ट्रीटमेंट न किया जाए तो वह एम्ब्लियोपिया से पीड़ित हो सकता है। एम्ब्लियोपिया विकास से संबंधित विकार है, जिसमें एक आंख कमजोर पड़ जाती है और मस्तिष्क उस आंख से मिले सिग्नल को पकड़ नहीं पाता है। दृष्टि संबंधित कुछ स्थितियों के जल्दी परीक्षण और ट्रीटमेंट की मदद से शिशु में अंधेपन से बचा जा सकता है।

  • अभी अनोप्थलमिया (एक आंख के बिना पैदा होना) का कोई इलाज नहीं है। हालांकि, जिन शिशुओं को सामान्य या कम स्तर पर माइक्रोप्थलामिया है, उनमें सॉकेट के विकास में कन्फोर्मेर (एक एक्रिलिक का शैल है जो कि आंख के सॉकेट के आकार को ठीक करने के लिए आंखों में लगाया जाता है) मदद कर सकता है। गंभीर मिक्रोफथलामिया (असामान्य रूप से छोटी आंखें) की स्थिति में सर्जिकल ट्रीटमेंट जैसे एक्सपेंडेबल ऑर्बिटल इम्प्लांट, ऑर्बिटल ऑस्टिओटोमिस, कंजक्टिवल सैक और लिड रिकंस्ट्रक्शन भी लाभकारी साबित हो सकता है।
  • आप कोलोबोमा (किसी ऊतक के न होने की वजह से आंखों में छेद या दूरी) को पूरी तरह से ठीक नहीं कर सकते हैं, लेकिन दृष्टि को ठीक करने के लिए कुछ तरीके अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए रेफ्रेक्टिव खराबी को ठीक करने के लिए चश्मे या कांटेक्ट लेंस का प्रयोग, लो विजन उपकरणों का प्रयोग और दूसरी आंख में धुंधला करने वाली दवा का प्रयोग ताकि दोनों आंखों को एक समान बनाया जा सके। 
  • परसिस्टेंट फीटल वस्क्युलेचर में खराब लेंस को हटाया जाता है और रेटिना को वापस उसके स्थान पर लगाया जाता है। आंखों के ठीक तरह से कार्य करने के लिए शिशु को कांटेक्ट लेंस की जरूरत होगी।
  • कंजेनिटल कैटरेक्ट को एस्पिरेशन तकनीक द्वारा निकाला जाता है। इस तकनीक के दौरान आंख में एक छोटा सा कट लगाकर मोतियाबिंद (आंखों में मौजूद धुंधलापन) को निकाला जाता है और फिर उस जगह पर इंट्राऑक्यूलर लेंस लगा दिया जाता है। आंख की सर्जरी के बाद शिशु को आंख ठीक करने के लिए विजन-करेक्टिंग आई ग्लास या लेंस की जरूरत हो सकती है।
  • इंफेंटिल ग्लूकोमा को जल्दी ही सर्जिकल ट्रीटमेंट से ठीक किया जा सकता है
    • गोनिओटोमी - यह एक सर्जिकल प्रक्रिया है जो कि गोनियोलेंस द्वारा की जाती है। इस प्रक्रिया में आंख के ब्लॉक हुए ट्रेबकुलर मेशवर्क (पानी निकलने वाली दिशा में बने छोटी नलियों का जाल) जो कि आंखों से द्रव्य निकालने में मदद करता है उसमें छेद किया जाता है। 
    • ट्रेबकुलोटोमी - यह एक सर्जिकल प्रक्रिया है, जिसमें आंख के ड्रेनेज एंगल से एक ऊतक को निकाला जाता है, ताकि एक ऐसी जगह बनाई जा सके जहां से आंखों का द्रव स्वयं निकल जाए। 
    • ट्रेबकुलेक्टोमी - यह एक सर्जिकल प्रक्रिया है, जिसमें आंख की दीवार या स्क्लेरा पर एक छेद किया जाता है, जिसे पतले से ट्रैपडोर से ढका जाता है। आंखों में मौजूद द्रव ट्रैपडोर से होकर आंखों की सतह के नीचे मौजूद रेसर्वियर में चला जाता है, यह रेसर्वियर पलकों से ढका होता है।
  • अभी रेटिनिटिस पिगमेंटोसा का कोई इलाज नहीं है, लेकिन आप रोग की गति को धीमा कर सकते हैं। ऐसा सूरज की रोशनी के साथ संपर्क न करके, एंटीऑक्सीडेंट लेकर और नियमित रूप से डॉक्टर के पास जाकर किया जा सकता है।
  • ऑप्थल्मिआ नियोनेटोरम (28 दिन या उससे कम उम्र के शिशुओं को होने वाला मोतियाबिंद) के ट्रीटमेंट में अजिथ्रोमैसीन, इरिथ्रोमाइसिन दवाओं का प्रयोग किया जाता है। ये दवाएं बैक्टीरियल संक्रमण को ठीक करने के लिए दी जाती हैं। इसके साथ ही यह सलाइन का प्रयोग करके आंखों से द्रव्य निकालने के लिए भी दी जाती है।
  • रेटिनोपैथी ऑफ प्री मेच्योरिटी (आरओपी) के इलाज में लेजर थेरेपी और काइरोथेरेपी का प्रयोग किया जा सकता है। रेटिना को हटाने वाले मामले में स्क्लेरॉल बकलिंग और विटरेक्टॉमी जैसी आइ सर्जरी की जा सकती है।
  • कुछ न्यूरोलॉजिकल स्थितियों के शुरुआती ट्रीटमेंट से पूरी दृष्टि ठीक की जा सकती है। इन स्थितियों के इलाज के लिए माता-पिता को अपने शिशुओं को डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। 
  • एंटीबायोटिक ड्राप और ऑइंटमेंट का प्रयोग करके किरेटोमलेशिया का इलाज किया जा सकता है। विटामिन ए की कमी के लिए शिशु को आहार और सप्लीमेंट दिए जाने चाहिए।

सबसे पहले सभी माता-पिता को एसटीडी के संक्रमण का टेस्ट करवाना चाहिए। एक सामान्य टेस्ट और इलाज से भविष्य में होने वाली कई सारी जटिलताओं से बचा जा सकता है।

जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में आपको अपने शिशु को आंखों के सामान्य चेक अप के लिए ले जाना चाहिए ताकि दृष्टि क्षीणता से बचा जा सके। इन अवस्थाओं में निम्न शामिल होने चाहिए -

  • जन्म के समय - आंखों का पहला परीक्षण जन्म के पहले महीने में किया जाना चाहिए।
  • छह महीने की उम्र - आंखों के परीक्षण के लिए यह सबसे उत्तम समय है। छह माह की उम्र तक सभी तरह की समस्याओं की देखा जा सकता है, क्योंकि इस समय तक आंखों की गति और स्थान पूरी तरह से विकसित हो चुका होता है।
  • 18 से 24 महीने - इस समय तक आंखों के ट्यूमर जैसे रेटिनोब्लास्टोमा (रेटिना का कैंसर) का पता लगाना आसान हो जाता है। जल्दी परीक्षण से आप शिशु की दृष्टि बचा सकते हैं।
  • तीन वर्ष की उम्र - इस समय तक आंखों की गति 90 प्रतिशत तक पूरी हो चुकी होती है इसलिए अब आंखों का पूरा चेकअप किया जा सकता है।
  • पांच से छह वर्ष की उम्र (प्री स्कूल से पहले) - बच्चा स्कूल जाना शुरू करे उससे पहले आंखों का एक पूरा चेक अप जरूरी होता है। ऐसा इसलिए है ताकि यह पता लगाया जा सके कि शिशु को कुछ भी पढ़ने में समस्या नहीं हो रही है।
  • स्कूल जाने वाले बच्चों का वार्षिक आइ चेक अप - स्कूल जाने वाले बच्चों का साल में एक बार चेक अप करवाना चाहिए।

अगर बात शिशुओं की है, विशेषकर उनकी आंखों की, तो वास्तव में इलाज से बेहतर है कि बचाव किया जाए। यह गर्भावस्था के समय से ही शुरू होता है। इसलिए गर्भावस्था में ठीक तरह से चेक अप करवाएं और गर्भावस्था के दौरान टीकाकरण करवाएं। ऐसा करने से भविष्य में शिशु को होने वाली स्थितियों से बचा जा सकता है। इससे आप और डॉक्टर भविष्य में होने वाली स्थितियों को लेकर सचेत हो जाएंगे और आप भी उनके अनुसार खुद को तैयार कर पाएंगे।

आपके शिशु का पहला आंखों का चेकअप आपके अस्पताल से निकलने से पहले होगा। इसके बाद यदि आप शिशु की आंखों के बारे में चिंतित हैं तो डॉक्टर को दिखा सकते हैं।

यदि शिशु को भविष्य में आंखों से संबंधी कोई समस्या होने वाली है तो उसका जल्दी परीक्षण और इलाज उससे निपटने का सबसे उत्तम तरीका है। इन्फेंट कैटरेक्ट और इन्फेन्टाइल ग्लूकोमा के लिए दवाएं और सर्जिकल उपाय मौजूद हैं। किरेटोमलेशिया जो विटामिन ए की कमी से होता है उसका इलाज विटामिन ए के सप्लीमेंट और एंटीबायोटिक आइ ड्राप लेकर किया जा सकता है।

कुछ स्थितियां जैसे रेटिनिटिस पिगमेंटोसा का अब तक कोई इलाज नहीं है। हालांकि, माता-पिता ठीक पूर्वोपायों से दृष्टि हीनता को धीमा कर सकते हैं। माता-पिता शिशु को बिना दृष्टि के जीने में थेरेपी और प्यार द्वारा मदद कर सकते हैं।

Dr Shivraj Singh

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संदर्भ

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