संक्रामक बीमारियों और उससे जुड़ी अक्षमताओं से अपने नवजात शिशु को पूरी तरह से सुरक्षित रखने के लिए बेहद जरूरी है कि आप बच्चे का पूरा टीकाकरण सही समय पर करवाएं। इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) के वैक्सीन और प्रतिरक्षा पद्धति के सलाहकारी आयोग के साल 2018-19 के सुझावों के मुताबिक, नवजात शिशु के 1 साल का होने से पहले उसे कम से कम 10 टीके यानी वैक्सीन दिए जाते हैं। (इसमें टीकों की रिपीट डोज शामिल नहीं है)

ज्यादातर टीके इंजेक्शन के तौर पर दिए जाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इंजेक्शन ही सबसे असरदार तरीका है जिसके जरिए बच्चों को ये जीवनरक्षक टीके दिए जा सकते हैं। (आपको बता दें कि भारत में भले ही पोलियो की ड्रॉप दी जाती हो लेकिन दुनियाभर के कई देशों में पोलियो वैक्सीन भी इंजेक्शन के जरिए ही दी जाती है) अब जाहिर सी बात है कि इंजेक्शन से बच्चों को थोड़ा दर्द तो होता ही है - इंजेक्शन देने के दौरान भी और बाद में भी। चूंकि अपना दर्द व्यक्त करने का बच्चों के पास सिर्फ एक ही तरीका है और वह है रोना। लिहाजा बच्चों का रोना देखकर उन्हें टीके लगवाते वक्त कुछ पैरंट्स खुद भी बेचैन और परेशान हो जाते हैं।

(और पढ़ें : टीकाकरण क्या है, क्यों करवाना चाहिए और फायदे)

ऐसे में एक्सपर्ट्स बच्चों को असरदार तरीके से टीके देने के वैकल्पिक तरीकों के बारे में खोज कर रहे हैं ताकि उसमें सुई की वजह से होने वाले दर्द और सामान्य दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। इसमें से कुछ तरीके हैं मुंह (ओरल) और नाक (नेजल) के जरिए दिए जाने वाले टीके। लेकिन ये सभी अभी रिसर्च के अलग-अलग स्टेज में हैं। फिलहाल मार्केट में सिर्फ एक पेनलेस या दर्द रहित टीका मौजूद है और वह है डीटीएपी का टीका जो डिप्थीरिया, टेटनस और काली खांसी जैसी बीमारियों से बच्चे को सुरक्षित रखता है। लेकिन क्या आपको अपने बच्चे को यह बिना दर्द वाली वैक्सीन लगवानी चाहिए? क्या यह रेग्युलर वैक्सीन जितनी असरदार है? दर्द वाली और बिना दर्द वाली इन दोनों वैक्सीन में अंतर क्या है? 

इस आर्टिकल में हम आपको बता रहे हैं कि बिना दर्द वाली पेनलेस वैक्सीन क्या है, मार्केट में किस तरह की और कौन सी दर्द रहित वैक्सीन मौजूद है और किस तरह की दर्द रहित वैक्सीन पर अब भी काम चल रहा है।

  1. दर्द रहित टीका आखिर है क्या? - Painless vaccine hai kya?
  2. दर्द रहित टीके कितने तरह के होते हैं? - Type of painless vaccine in hindi
  3. क्या दर्द रहित टीके कम असरदार होते हैं? - Dard rahit vaccine kya kam asardar hoti hai?
दर्द रहित टीकाकरण के डॉक्टर

जब भी कोई पेनलेस वैक्सीन या दर्द रहित टीके की बात करता है तो ज्यादातर लोगों को लगता है कि यह एक ऐसा इंजेक्शन होगा जिसे लेने में दर्द नहीं होगा। लेकिन यह जानना जरूरी है कि कोई भी इंजेक्शन फिर चाहे वह नसों में दिया जाए या फिर मांसपेशियों में उससे दर्द होगा ही और इसलिए दर्द रहित इंजेक्शन जैसी कोई चीज नहीं है। हालांकि, इसके अलावा कई दूसरे तरीके भी हैं, जिसके जरिए आप टीके को बिना किसी दर्द के ले सकते हैं। उदाहरण के लिए- मुंह या नाक से दिए जाने वाले टीके। पोलियो की ओरल वैक्सीन दर्द रहित टीके का ही एक प्रकार है। 

डीटीएपी इंजेक्शन को भी कई बार दर्द रहित टीके का नाम दिया जाता है। हालांकि, यह वैक्सीन भी पूरी तरह से दर्द रहित नहीं है। डीटीडब्लूपी वैक्सीन की तुलना में इस डीटीएपी वैक्सीन के दुष्प्रभाव बेहद कम हैं, जिसमें दर्द भी शामिल है। डीटीपी वैक्सीन 3 अलग-अलग बीमारियों- डिप्थीरिया, टेटनस और पर्टुसिस यानी काली खांसी के लिए दी जाती है। डीटीएपी वैक्सीन में एसेलुलर पर्टुसिस एंटीजेन (काली खांसी पैदा करने वाला बैक्टीरिया का एक हिस्सा) पाया जाता है जबकी डीटीडब्लूपी वैक्सीन में सूक्ष्मजीव पाया जाता है जिसकी वजह से पर्टुसिस या काली खांसी होती है। डीटीएपी वैक्सीन डीटीडब्लूपी की तुलना में ज्यादा महंगी होती है क्योंकि उसमें शुद्धीकरण की अतिरिक्त प्रक्रिया शामिल होती है।

ज्यादा महंगी होने के बावजूद डीटीएपी वैक्सीन डीटीडब्लूपी वैक्सीन की तुलना में काली खांसी के खिलाफ कम समय के लिए इम्यूनिटी प्रदान करती है। डीटीडब्लूपी वैक्सीन देने पर दुष्प्रभाव के तौर पर बच्चे को बुखार आता है और ज्यादा दर्द भी होता है। डीटीएपी वैक्सीन की कीमत करीब 2 हजार रुपये प्रति इंजेक्शन होती है।

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द इंडियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक दवा दिए जाने के तरीके के आधार पर दर्द रहित टीके निम्नलिखित प्रकार के होते हैं :

  • ओरल या मौखिक टीका/एडिबल या खाने योग्य टीका
  1. सबलिंगुअल वैक्सीन
  2. मुंह में घुलने वाला टीका 
  • नाक से दिया जाने वाला नेजल टीका
  • पल्मोनरी वैक्सीन
  • डर्मल या त्वचा के जरिए दिए जाने वाले टीके
  1. माइक्रकोनीडल वैक्सीन
  2. नैनोपैच वैक्सीन
  3. जेट इंजेक्टर्स

इनमें से ओरल और नेजल वैक्सीन्स के कुछ ही प्रकार हैं जिनका मौजूदा समय में इस्तेमाल किया जाता है बाकी सभी वैक्सीन या टीके रिसर्च की अलग-अलग स्टेज में हैं। इन टीकों के बारे में अलग-अलग जानकारी लेते हैं। 

ओरल या मौखिक टीका - Oral vaccine in hindi

ओरल या मौखिक टीके की मांग सबसे ज्यादा होती है क्योंकि इसे बच्चों को देना बेहद आसान होता है। एक्सपर्ट्स की सलाह है कि करीब 90 प्रतिशत रोगाणु बेहद पतले और प्रवेश योग्य श्लेष्म झिल्ली के जरिए इंसान के शरीर में घुसते हैं। उदाहरण के लिए- पेट की परत में मौजूद झिल्ली, आंत और श्वसन पथ। इसमें भी नाक और मुंह बेहद आसान पॉइंट्स हैं जिसके जरिए रोगाणु शरीर में प्रवेश करते हैं। लिहाजा अगर टीके के जरिए श्लेष्म झिल्ली को निशाना बनाया जाए तो इम्यूनिटी प्रदान करने का एक असरदार सिस्टम बन सकता है। 

ज्यादातर वैक्सीन्स जो त्वचा या मांसपेशियों में जाती हैं वे सिर्फ एंटीबॉडीज बनाती हैं और कुछ मात्रा में टी-सेल्स भी। टी-सेल्स, प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) की वे कोशिकाएं हैं जो सेलुलर या कोशिकीए इम्यूनिटी प्रदान करती हैं। कोशिका के अंदर मौजूद परजीवी जैसे- वायरस आदि से लड़ने के लिए सेलुलर इम्यूनिटी की जरूरत होती है। कई अध्ययनों में यह बात सामने आयी है कि वे टीके जो श्लेष्म झिल्ली को निशाना बनाते हैं वे पर्याप्त मात्रा में IgA एंटीबॉडीज (एक तरह का एंटीबॉडी जो मुख्य रूप से श्लेष्मली सतहों को सुरक्षित रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं) का निर्माण करते हैं। पैतृक मार्ग से दिए जाने वाले टीकों में यह एंटीबॉडीज देखने को नही मिलते। 

इंजेक्शन के जरिए दी जाने वाली वैक्सीन पूरे शरीर में IgA एंटीबॉडीज विकसित करती है और साथ ही में पूरे शरीर में कोशिकीए प्रतिक्रिया भी। सिस्टेमिक या दैहिक प्रतिक्रिया आमतौर पर तब होती है जब श्लेष्म झिल्ली शरीर के अंदर जुड़ी होती है। इसलिए जब कोई सतह सुरक्षित होती है तो वह अपने आप ही सभी सतहों को सुरक्षित बनाती है। IgG हमारे शरीर में सबसे ज्यादा मात्रा में पाए जाने वाले एंटीबॉडीज हैं जिनकी मदद से शरीर को लंबे समय तक इम्यूनिटी मिलती है। 

कैसे काम करते हैं मौखिक टीके (ओरल वैक्सीन)?
जब मौखिक टीके में मौजूद एंटीजेन छोटी आंत में पहुंचता है, विशेषज्ञता प्राप्त एम सेल्स उस एंटीजेन को आंत के इम्यून सेंसर पेयर्स पैच तक पहुंचाने का काम करता है। पेयर्स पैच लसीका से बने टीशू हैं जो आंत में इम्यूनिटी उत्पन्न करने में अहम भूमिका निभाते हैं। लिहाजा मौखिक टीके की योग्यता और सामर्थ्य बढ़ाने के मकसद से एक्सपर्ट्स इस बात पर फोकस कर रहे हैं कि ऐसी खास वैक्सीन बनायी जाए जो इन एम सेल्स को निशाना बनाती हो।

मौखिक टीके से जुड़ी चिंताएं

  • मौखिक टीके या मुंह से दी जाने वाली वैक्सीन जठरांत्र श्लेष्म झिल्ली को निशाना बनाती है। मौखिक रास्ते से दी जाने वाली वैक्सीन की सबसे बड़ी समस्या ये है कि आंत में मौजूद एन्जाइम्स वैक्सीन के तत्वों को पचा लेते हैं, इससे पहले कि वे शरीर से किसी तरह की इम्यून प्रतिक्रिया ले पाएं
  • दूसरी चिंता है टीके के डोज को नियंत्रित करना। इम्यून प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए इंजेक्शन के जरिए जो डोज दिया जाता है कि उसकी तुलना में मौखिक टीके के लिए अधिक हेवी डोज की जरूरत होती है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि टीके के हाई डोज की वजह से मौखिक सहनशीलता की समस्या हो सकती है- हो सकता कि इम्यून सिस्टम आंत में मौजूद रोगाणु के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया न दे। लिहाजा अलग-अलग उम्र के बच्चों और वयस्कों के लिए भी टीके की सही डोज का निर्धारण करना बहुत जरूरी है।
  • साथ ही साथ टीके की हाफ-लाइफ को लेकर भी चिंता है- यह वह समय है जिसमें आधे से ज्यादा टीका शरीर के सिस्टम से बाहर हो जाता है।

इन सभी चिंताओं से निपटने के लिए मौखिक टीके के वितरण के अलग-अलग तरीकों का सुझाव दिया गया है जिसमें प्लांट बेस्ड ओरल वैक्सीन, बैक्टीरियल वेक्टर, लिपिड बेस्ड वेक्टर और नैनोपार्टिकल बेस्ड वैक्सीन शामिल है।      

लाइसेंस प्राप्त और व्यावसायिक रूप से दिए जाने वाले मौखिक टीके
मौजूदा समय में जो मौखिक टीके व्यावसायिक रूप से मार्केट में मिल रहे हैं, वे हैं:

पोलियो का मौखिक टीका : सबसे कॉमन तरह का मौखिक टीका है ओपीवी या ओरल पोलिया वैक्सीन। इस वैक्सीन या टीके में जीवित लेकिन कमजोर किया हुआ पोलियो वायरस मौजूद होता है जो मोनोवैलेंट यानी एकसंयोजक (एक तरह के पोलियो वायरस के खिलाफ इम्यूनिटी देने वाला) हो सकता है या फिर मल्टीवैलेंट या बहुसंयोजक (एक से ज्यादा तरह से पोलियो वायरस के खिलाफ इम्यूनिटी देने वाला) हो सकता है। बड़ी संख्या में और सामुदायिक स्तर पर टीकाकरण कार्यक्रम में ओरल पोलियो वैक्सीन का अहम रोल है जिसकी मदद से दुनियाभर में पोलियो वायरस के 2 स्ट्रेन को जड़ से खत्म करने में मदद मिली है। 

(और पढ़ें : पोस्ट पोलियो सिंड्रोम)

हालांकि इस वैक्सीन के जहरीला या विषैला बनने और इंफेक्शन फैलाने की आशंका बेहद दुर्लभ है (2.5 मिलियन में से एक)। चूंकि दुनियाभर से इस वायरस को बड़ी मात्रा में जड़ से खत्म किया जा चुका है इसलिए मौजूदा समय में वैक्सीन की आवृत्ति से पोलियो होने का खतरा असल में बीमारी होने की तुलना में काफी अधिक है। लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि इम्यूनाइजेशन या प्रतिरक्षण की प्रक्रिया बंद कर देनी चाहिए। कम से कम तब तक नहीं जब तक कि इस वायरस का पूरी तरह से दुनियाभर से उन्मूलन नहीं हो जाता।

कॉलेरा या हैजा का टीका : मौजूदा समय में विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से हैजा के 3 मौखिक टीकों को स्वीकृति प्रदान की गई है। इनमें से एक है- रीकॉम्बिनेंट कॉलेरा टॉक्सीन बी (सीटीबी) सबयूनिट वैक्सीन है जिसमें कॉलेरा टॉक्सिन के सबयूनिट के साथ ही मारे गए रोगाणु भी शामिल होते हैं और यह स्थायी और मजबूत होने के साथ ही नॉन-टॉक्सिक यानी विषरहित भी होता है। अध्ययनों में यह बात साबित हुई है कि यह टीका कॉलेरा या हैजा के खिलाफ 65 प्रतिशत इम्यूनिटी प्रदान करता है और करीब 2 साल तक असरदार रहता है। बाकी के 2 हैजा के टीकों में सिर्फ मारे गए रोगाणु ही होते हैं। सभी टीकों को 2 डोज के नियम अनुसार दिया जाता है। 

एक जीवित कमजोर करके तैयार किया हुआ हैजा के टीको को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाइसेंस प्राप्त है जो कॉलेरा बैक्टीरिया के कमजोर वर्जन का इस्तेमाल करता है। यह टीका सिर्फ सिंगल डोज से ही अच्छी इम्यूनिटी प्रदान करने का काम करता है। हालांकि मौजूदा समय में यह सिर्फ वयस्कों को ही दिया जाता है यानी 18 से 64 साल के बीच के लोगों को जो हैजा प्रभावित इलाकों की यात्रा कर रहे हों। 

(और पढ़ें : हैजा का टीका)

टाइफाइड का टीका : टाइफाइड बुखार के लिए मौजूदा समय में जिस टीके को स्वीकृति दी गई है वह टाइफाइड बैक्टीरिया सैल्मोनेला टाइफी के जीवित कमजोर वर्जन का इस्तेमाल करता है। इस टीके का नाम है- Ty21a जो तरल और कैप्सूल दोनों रूपों में मिलती है जो बीमारी से करीब 7 सालों तक 62 प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करती है। हालांकि टीके का असर टीका दिए जाने के एक सप्ताह बाद ही दिखना शुरू होता है। 

रोटावायरस : रोटावायरस एक तरह की डायरिया की बीमारी है जो 5 साल तक के बच्चों में मौत का सबसे बड़ा कारण है। रोटावायरस के कम से कम 5 स्ट्रेन मौजूद हैं जिनकी वजह से ये बीमारी होती है और मार्केट में फिलहाल 2 तरह के मौखिक रोटावायरस के टीके मौजूद हैं। वे टीके हैं:

  • जीवित कमजोर किया हुआ इंसानी रोटावायरस वैक्सीन : यह एकसंयोजक टीका है जो रोटावायरस के सिर्फ एक स्ट्रेन के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।
  • पशुवत-इंसानी रोटावायरस वैक्सीन : यह टीका रोटावायरस के सभी पांचों स्ट्रेन के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।

ये दोनों ही टीके गंभीर रोटावायरस बीमारी के खिालफ करीब 90 प्रतिशत असरदार है और हल्की बीमारी के खिलाफ करीब 70 प्रतिशत असरदार।

सबलिंगुअल ओरल वैक्सीन
चूंकि मौखिक टीकों की एक कमी ये है कि वे आंत में जाकर निम्नीकृत हो जाते हैं ऐसे में सबलिंगुअल यानी मांसल और बकल यानी कपोल टीकों को टीके के वितरण के बेहतर विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि इन टीकों को श्लेष्म झिल्ली सतहों के जरिए दिया जा सकता है। हालांकि वैज्ञानिकों के समुदाय की तरफ से टीके के इस मार्ग पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। इस वक्त मौजूद सबलिंगुअल वैक्सीन सिर्फ एलर्जी के लिए दी जाने वाली वैक्सीन है जिसका इस्तेमाल एलर्जी पैदा करने वाले अलग-अलग तत्वों के खिलाफ हाइपरसेंसेटिविटी के इलाज में किया जाता है। 

सबलिंगुअल वैक्सीन जीभ की सतह के नीचे खुलकर अवशोषित हो जाता है जबकी बकल या मुख टीका मसूड़े, गाल और होंठ में मौजूद कपोल श्लेष्म झिल्ली में अवशोषित हो जाता है। इन क्षेत्रों में मोटी परत नहीं होती इसलिए टीका इनमें से आसानी से पास हो जाता है और फिर खून तक पहुंच जाता है। एक्सपर्ट्स की मानें तो मुख छेद में मौजूद श्लेष्म झिल्ली, हमारी त्वचा की तुलना में 4 हजार गुना ज्यादा प्रवेश योग्य होती है। हालांकि यह आंत में मौजूद श्लेष्म झिल्ली की तुलना में कम प्रवेश योग्य है। 

सबलिंगुअल वैक्सीन को श्वास संबंधी वायरस जैसे- इन्फ्लूएंजा, सार्स (सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम) और रेस्पिरेटरी सिंकसाइटिकल वायरस के खिलाफ असरदार माना जाता है। ये सभी टीके फिलहाल विकसित होने के प्री-क्लीनिकल स्टेज में हैं। कई और रोगाणु जिनकी सबलिंगुअल या बकल वैक्सीन बनाने पर अध्ययन जारी है वे हैं- एचआईवी, इबोला, टेटनस, मीजल्स या खसरा, एचपीवी (ह्यूमन पैपिलोमावायरस) और न्यूमोकॉकल बीमारी। 

मुंह में घुलने वाला टीका
मुंह में घुलने वाला टुकड़ा या टीका एक और तरह का बकल डिलिवरी सिस्टम है जिसमें बेहद पतली घुलनशील परत का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें एंटीजेन शामिल होते हैं। कई अलग-अलग तरह की मौखिक परतें मार्केट में अब भी ब्रेथ मिंट (सांसों को ताजा करने वाली कैप्सूल) के रूप में मौजूद हैं और यह टेक्नोलॉजी खून में दवा पहुंचाने के मामले में बेहद असरदार साबित हुई है।

अब तक सिर्फ एक मुंह में घुलने वाली स्ट्रिप वैक्सीन का निर्माण किया गया है जो रोटावायरस के लिए है। इस तरह की और वैक्सीन पर काम चल रहा है। चूंकि इन टीकों को देना आसान होता है लिहाजा बच्चों को प्रतिरक्षित करने के लिहाज से इन्हें बेहतरीन माना जाता है। एक अच्छे मुंह में घुलने वाले स्ट्रिप के लिए पानी की जरूरत नहीं होती, उनका स्वाद अच्छा होता है और साथ ही उनमें वैक्सीन के स्टैंडर्ड डोज को भी असरदार तरीके से डाला जा सकता है। हालांकि इन टीकों की कुछ कमियां भी हैं जैसे- इन्हें वैक्सीन की हाई डोज देने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और दूसरा- स्ट्रिप या परत की मोटाई बनाने के लिए शुद्धता और खास तरह की पैकेजिंग की जरूरत होती है।

नाक से दिया जाने वाला (नेजल) टीका - Nasal vaccine in hindi

मौखिक टीकों की ही तरह नाक से दिया जाने वाले नेजल टीका भी श्लेष्म झिल्ली का इस्तेमाल कर शरीर में प्रवेश करता है। नाक में मौजूद श्लेष्म झिल्ली में लसीकाभ उत्तक का अपना ही पैच होता है जिसके जरिए प्रतिरक्षाजन इम्यून प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है- सेलुलर यानी कोशिकीए और ह्यूमोरल यानी शरीर के तरल पदार्थों दोनों में।

इन टीकों को अलग-अलग तरीकों से दिया जा सकता है जिसमें सलूशन (नेजल ड्रॉप और नेजल स्प्रे), जेल और पाउडर शामिल है। इनका घुलनशील प्रकार ज्यादा प्रसिद्ध है क्योंकि इस वैक्सीन को देने का तरीका बेहद आसान है। हालांकि नेजल ड्रॉप में व्यक्ति को अपने सिर को कुछ देर तक ऊपर की तरफ करके रखना पड़ता है और नेजल स्प्रे से टीका देने पर हो सकता है कि वह टीका ओरल कैविटी या मुंह के छेद में आ जाए या फिर नाक से बाहर निकल जाए।

ह्यूमन वैक्सीन एंड इम्यूनोथेरापियुटिक्स नाम के जर्नल में प्रकाशित एक स्टडी की मानें तो तो नेजल वैक्सीन का पाउडर फॉर्म ज्यादा स्थिर माना जाता है। एक तरह की पाउडर-बेस्ड नेजल ऐन्थ्रैक्स वैक्सीन मौजूदा समय में विकास के स्टेज में है। हालांकि इन टीकों को देने के लिए एक्सपर्ट्स की जरूरत होती है। और आखिर में नैनोपार्टिकल बेस्ड नेजल वैक्सीन्स भी होती हैं जो घुलनशील वैक्सीन की तुलना में ज्यादा असरदार और प्रतिरक्षाजनी होती हैं।

लाइसेंस प्राप्त नेजल वैक्सीन
मौजूदा समय में दुनियाभर में सिर्फ 2 नेजल स्प्रे वैक्सीन को स्वीकृति और लाइसेंस प्रदान किया गया है। ये दोनों ही नेजल स्प्रे इन्फ्लूएंजा वायरस के खिलाफ हैं और इसमें फ्लू वायरस का लाइव लेकिन कमजोर हिस्सा मौजूद होता है। इनमें से एक को अमेरिका में विकसित किया गया है और दूसरे को सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने। साल 2013 में सीडीसी द्वारा अमेरिका में विकसित किए गए टीके को समाप्त कर दिया गया क्योंकि एक स्टडी में कहा गया था कि यह वैक्सीन उतनी असरदार नहीं है।

(और पढ़ें : बच्चों में फ्लू-इन्फ्लूएंजा)

जब बात फ्लू की आती है तो बच्चों को हाई-रिस्क ग्रुप में रखा जाता है। चूंकि फ्लू का वायरस तेजी से अपना रूप परिवर्तित कर लेता है लिहाजा उस साल के सबसे ज्यादा ऐक्टिव फ्लू स्ट्रेन के आधार पर हर साल एक नई फ्लू वैक्सीन लॉन्च की जाती है। इसके अलावा नाक के रास्ते वैक्सीन पहुंचाने के सिस्टम को कई दूसरे रोगाणुओं के लिए भी अध्ययन किया जा रहा है जिसमें हेपेटाइटिस बी, न्यूमोकॉकल इंफेक्शन, एचआईवी और हाल ही में सामने आयी बीमारी कोविड-19 के लिए जिम्मेदार वायरस सार्स-सीओवी-2 भी शामिल है।

पल्मोनरी वैक्सीन - Pulmonary vaccine in hindi

फेफड़ों में मौजूद श्लेष्म झिल्ली की सतह भी वैक्सीन को अवशोषित करने के लिए एक बड़ी सतह प्रदान करती है। पल्मोनरी वैक्सीन एयरोसोल बेस्ड वैक्सीन होती है जिसमें जेट पाउडर नेबुलाइजर या ड्राई पाउडर इन्हेलर का इस्तेमाल कर छोटे-छोटे कण बनाए जाते हैं। जेट नेबुलाइजर बेहद छोटे कण बना सकता है जो बड़ी आसानी से फेफड़ों में प्रवेश कर जाते हैं और वैक्सीन की बड़ी डोज मुहैया करा सकते हैं। इन्हें प्रेशराइज्ड मीटर्ड डोज इन्हेलर के साथ भी दिया जा सकता है ताकि दी जा रही वैक्सीन की मात्रा को नियंत्रित किया जा सके। हालांकि जेट नेबुलाइजर के इस्तेमाल में क्लोरोफ्लोरोकार्बन का बहुत ज्यादा निर्माण होता है और इसी वजह से ड्राई पाउडर इन्हेलर को तरजीह दी जाती है। सभी तरह की पल्मोनरी वैक्सीन्स फिलहाल क्लीनिकल (एमएमआर, फ्लू, बीसीजी, एचपीवी के लिए) और प्रीक्लीनिकल (टीबी, मीजल्स, हेपेटाइटिस बी के लिए) ट्रायल फेज में हैं।

ट्रांसडर्मल या स्किन के रास्ते वैक्सीन देना - Transdermal vaccine in hindi

ट्रांसडर्मल वैक्सीन स्किन यानी त्वचा में दी जाती है। इंट्रामस्कुलर या इंट्रावीनस वैक्सीन की तुलना में ट्रांसडर्मल वैक्सीन में दर्द कम होता है। बिना सुई के दी जाने वाली ट्रांसडर्मल वैक्सीन 3 तरह की होती है:

जेट इंजेक्टर
लिक्विड जेट इंजेक्टर में प्रेशराइज्ड गैसों की मदद से एंटीजेन को सीधे त्वचा में इंजेक्ट किया जाता है। ये इंजेक्टर्स सिंगल-यूज यानी एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिए जाने वाले या फिर मल्टी-यूज यानी कई बार इस्तेमाल करने वाले दोनों हो सकते हैं। इसके जरिए तरल या ठोस फॉर्मूलेशन को सिंगल नोजल या मल्टी नोजल के जरिए स्किन में पहुंचाया जाता है। एक्सपर्ट्स का सुझाव है कि जेट इंजेक्टर्स एंटीजेन को त्वचा के बड़े हिस्से में फैलाता है। अध्ययनों में यह बात साबित हो चुकी है कि रोगाणु के खिलाफ इम्यून प्रतिक्रिया उत्पन्न करने में जेट इंजेक्टर पांपरिक सुई वाली वैक्सीन से ज्यादा असरदार है। 

साल 2014 में अमेरिका के एफडीए ने फ्लू शॉट्स देने के लिए जेट इंजेक्टर डिवाइस को मान्यता दी थी। हालांकि मरीजों ने इंजेक्शन दिए जाने के बाद उस जगह पर दर्द और नरमी महसूस की थी। बावजूद इसके येलो फीवर वायरस, एमएमआर यानी मीजल्स, मम्प्स और रूबेला और रेबीज के खिलाफ जेट इंजेक्टर बेस्ड वैक्सीन पर फिलहाल रिसर्च जारी है। 

माइक्रोनीडल
माइक्रोनीडल वैक्सीन में बेहद छोटी सुईयों का एक समूह होता है जिनपर टार्गेट एंटीजेन को लेप की तरह कोट किया जाता है। जब इसे त्वचा की सतह पर दबाया जाता है तो ये सुईयां त्वचा में एंटीजेन को प्रवेश कराती हैं। ये सुईयां पॉलिमर, मेटल, सिलिकॉन किसी भी मटीरियल की बनी हो सकती हैं और चूंकि ये बेहद छोटी होती हैं इस कारण इनसे बहुत ज्यादा दर्द भी नहीं होता है। 

माइक्रोनीडल ठोस भी हो सकती हैं और खोखली भी। ठोस सुईयों को एंटीजेन (ड्राई पाउडर) से कोट किया जाता है जबकी खोखली सुईयों का इस्तेमाल तरल एंटीजेन को देने के लिए किया जाता है। ठोस सुई के जरिए 2ug तक सलूशन को स्किन में डाला जाता है जो दिए जाने के साथ ही तुरंत अवशोषित हो जाता है और त्वचा की सतह पर कुछ भी नहीं बचता। 

फिलहाल मार्केट में कोई भी माइक्रोनीडल वैक्सीन मौजूद नहीं है लेकिन इनमें अलग-अलग तरह के एंटीजेन जैसे- हेपेटाइटिस बी का डीएनए वायरस, कॉलेरा का टॉक्सॉयड्स और डिप्थीरिया बैक्टीरिया को पहुंचाने में यह असरदार साबित हो सकता है। कोविड-19 बीमारी के वायरस में भी माइक्रोनीडल बेस्ड वैक्सीन पर काम चल रहा है। 

नैनोपैच वैक्सीन
नैनोपैच जैसा की नाम से ही पता चल रहा है, इनमें माइक्रोनीडल की तुलना में बाहर के भाग की उठी हुई सतह (प्रोजेक्शन) पर बेहद छोटे-छोटे पैच होते हैं। इन प्रोजेक्शन्स को असरदार तरीके से कोट किया जा सकता है ताकि वे स्किन में एंटीजेन पहुंचा सकें। अभी तक एक भी नैनोपैच बेस्ड वैक्सीन व्यावसायिक रूप से विकसित नहीं की गई है। हालांकि वेस्ट नाइल वायरस, फ्लू वायरस और चिकनगुनिया वायरस में इसके पॉजिटिव नतीजे आए हैं। 

डीटीएपी ही एक मात्र दर्द रहित इंजेक्शन के रूप में मौजूद वैक्सीन है जो मार्केट में इस वक्त मौजूद है। हार्वर्ड हेल्थ में प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक, डीटीएपी वैक्सीन के बेहद कम दुष्प्रभाव हैं लेकिन पर्टुसिस यानी काली खांसी बैक्टीरिया के खिलाफ इसकी शक्ति धीरे-धीरे कम होने लगती है। (हर साल करीब 42 प्रतिशत) 4 या 6 साल की उम्र में जब वैक्सीन का आखिरी डोज दिया जाता है उसके बाद। जब तक बच्चा 10 साल का होता है उसके अंदर काली खांसी के खिलाफ इम्यूनिटी नहीं बचती। लिहाजा अनुसंधानकर्ता अब इस समस्या का कोई समाधान खोजने में जुटे हैं।

हालांकि, ओरल पोलियो वैक्सीन (ओपीवी) के साथ ऐसा नहीं है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि वैक्सीन की 4 डोज- जन्म के बाद छठे हफ्ते में, 10वें हफ्ते में, 14वें हफ्ते में और 16 से 24वें हफ्ते में देने के बाद बच्चा इस बीमारी से पूरी तरह से सुरक्षित हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO का भी यही कहना है कि जब भी सरकार पोलियो अभियान चलाती है उस वक्त 5 साल से कम उम्र के हर बच्चे को वैक्सीन की रिपीट डोज दी जानी चाहिए, क्योंकि गर्म और नमी वाले वातावरण में और जहां सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता वहां पर वायरस के दोबारा फैलने का खतरा अधिक होता है।

Dr Shivraj Singh

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7 वर्षों का अनुभव

Dr. Amol chavan

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10 वर्षों का अनुभव

संदर्भ

  1. Indian Academy of Pediatrics [Internet]. Mumbai. India; Indian Academy of Pediatrics (IAP) Advisory Committee on Vaccines and Immunization Practices (ACVIP) Recommended Immunization Schedule (2018-19) and Update on Immunization for Children Aged 0 Through 18 Years
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