स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) एक जन्म दोष है, जिसमें रीढ़ की हड्डी और मेरुदंड सही तरह से नहीं बन पाते हैं। इसको न्यूरल ट्यब दोष (neural tube defects) की श्रेणी में शामिल किया जाता है। न्यूरल ट्यूब भ्रूण की एक संरचना होती है जो बाद में भ्रूण के मस्तिष्क और मेरुदंड के रूप में विकसित हो जाती है।

सामान्यतः गर्भधारण के शुरुआती दिनों में न्यूरल ट्यूब बनती है और यह गर्भधारण के 28वें दिन तक बंद हो जाती है। जिन बच्चों को स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) की समस्या होती हैं, उनकी न्यूलर ट्यूब का एक हिस्सा बनने या बंद होने में समस्या आ जाती है। इसकी वजह से बच्चे के मेरूदंड और रीढ़ की हड्डी में दोष उत्पन्न हो जाता है। इस समस्या के कारण बच्चे को मानसिक और शारीरिक समस्याएं होने लगती हैं।

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शिशुओं में होने वाली स्पाइना बाइफ़िडा की समस्या को इस लेख में विस्तार से बताया गया है। साथ ही आपको स्पाइना बाइफ़िडा के प्रकार, स्पाइना बाइफ़िडा के लक्षण, स्पाइना बाइफ़िडा के कारण, स्पाइना बाइफ़िडा से बचाव और स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) का इलाज आदि विषयों को भी विस्तार से बताने का प्रयास किया गया है।  

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  1. स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) के प्रकार - Spina bifida ke prakar
  2. स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) के लक्षण - Spina bifida ke lakshan
  3. स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) के कारण और जोखिम कारक - Spina bifida ke karan aur jokhim karak
  4. स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) से बचाव - Spina bifida se bachav
  5. स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) की जांच - Spina bifida se janch
  6. स्पाइन बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) का इलाज - Spina bifida ka ilaj

स्पाइना बाइफ़िडा (स्पाइना बिफिडा) के प्रकार:

स्पाइना बाइफ़िडा के तीन प्रकार होते हैं। स्पाइना बाइफ़िडा की गंभीरता उसके प्रकार, आकार, स्थान और जटिलताओं पर निर्भर करती है। स्पाइना बाइफ़िडा के निम्नलिखित प्रकार होते हैं।

  • स्पाइना बाइफ़िडा अकल्टा (spinal bifida occulta):
    इस प्रकार के स्पाइना बाइफ़िडा से बेहद ही हल्के प्रभाव होते हैं। इसमें भ्रूण के बनते समय मेरुदंड और उसके आस पास की संरचनाएं बच्चे के शरीर के अंदर रहती हैं, लेकिन उसकी रीढ़ की हड्डी का निचला हिस्सा सही तरह से नहीं बन पाता है। इस स्थिति में रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से पर बाल आ सकते हैं या जन्मजात निशान उभर सकता है। (और पढ़े - डाउन सिंड्रोम का इलाज)
     
  • क्लोज्ड न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट (closed neural tube defects):
    इस प्रकार के स्पाइना बाइफ़िडा में रीढ़ की हड्डी के फैट, हड्डी व मेनिन्जेस (meninges: मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को सुरक्षा प्रदान करने वाली झिल्ली) में होने वाली कई तरह की संभावित समस्याओं को शामिल किया जाता है। इसके कुछ मामलों में लक्षण सामने नहीं आते हैं, जबकि कुछ मामलों में शरीर में आंशिक लकवा पड़ना व मल और मूत्र असंयमिता की समस्या हो सकती है।
     
  • मेनिनगोसील (meningocele):
    इसमें मेरुदंड सामान्य रूप से बनती है, लेकिन मेरुदंड के चारों ओर की सुरक्षात्मक परत मेनिन्जेस से कशेरुकाओं के छिद्र पर दबाव पड़ता है। इस झिल्ली को सर्जरी के द्वारा निकाल दिया जाता है, आमतौर पर इसमें तंत्रिका मार्गों को बहुत कम या कोई नुकसान नहीं होता है। (और पढ़े - सर्जरी से पहले की तैयारी)
     
  • माइलोमेनिनगोसील (myelomeningocele):
    माइलोमेनिनगोसील स्पाइना बाइफ़िडा का सबसे गंभीर प्रकार होता है। इसमें रीढ़ की हड्डी की नलिका (मार्ग) बच्चे की पीठ के मध्य व निचले हिस्से में एक या एक से अधिक जगहों से खुली होती है और यह पीठ से थैली के रूप में बाहर निकल जाती है। यह थैली मेरुदंड और नसों से जुड़ी होती है। 

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जो शिशु जन्म या उसके बाद स्पाइना बाइफ़िडा की समस्या से ग्रसित होते हैं, उनमें निम्नलिखित लक्षण दिखाई देते हैं।

  • कमजोरी और पैरों में लकवा पड़ना। 
  • मूत्र असंयमिता,
  • मल असंयमिता,
  • त्वचा की संवेदना में कमी आना,
  • सेरिब्रोस्पाइनल द्रव (cerebrospinal fluid: दिमाग और रीढ़ की हड्डी में बहने वाला द्रव) बनने से दिमाग में पानी (द्रव) भरने (hydrocephalus) और मस्तिष्क में क्षति होने की संभावना बढ़ जाती है।

इस समस्या से तंत्रिका तंत्र में भी संक्रमण का खतरा बना रहता है, कुछ मामलों में ये संक्रमण बच्चे के लिए घातक हो सकता है।

माइलोमेनिनगोसील में मेरुदंड के ऊतक बाहर की तरफ निकल जाते हैं। इसके कुछ लक्षणों के बारे में आगे जानें –

इसके साथ ही बच्चों को सांस लेने में मुश्किल, निगलने में परेशानी और बांह को घुमाने में मुश्किल होती है। इसके अलावा बच्चों का वजन तेजी से बढ़ सकता है। इस समस्या के लक्षण रीढ़ की हड्डी के स्थान और मेरुदंड से संबंधित नसों के आधार पर निर्भर करते हैं। 

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स्पाइना बाइफ़िडा के कारणों का पता नहीं लगाया जा सका है। वैज्ञानिक बच्चे के पारिवार में पहले से चली आ रही किसी स्वास्थ्य समस्या, वातावरण और मां के शरीर में फोलिक एसिड की कमी आदि कारकों को स्पाइन बाइफ़िडा की वजह मानते हैं।

स्पाइना बाइफ़िडा की समस्या सामान्य रूप से कुछ विदेशी लोगों के बच्चों में ज्यादा पाई जाती है। साथ ही ये रोग लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को अधिक होता है। हालांकि, इसके होने के सटिक कारणों का पता नहीं चल पाया है, लेकिन निम्नलिखित कुछ जोखिम कारक हैं जिनकी वजह से स्पाइना बाइफ़िडा की समस्या हो सकती हैं।

  • फोलेट की कमी:
    फोलेट बच्चे के विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है। यह प्राकृतिक रूप से विटामि बी 9 होता है और इसको फोलिक एसिड वाले आहार से प्राप्त किया जा सकता है। फोलेट की कमी होने से स्पाइना बाइफ़िडा के साथ ही अन्य न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट होने की संभावना बढ़ जाती है। (और पढ़े - विटामिन बी 9 की कमी का इलाज)
     
  • परिवार में पहले किसी को न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट की समस्या होना:
    यदि महिला के पहले बच्चे में न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट हो तो ऐसे में उसके दूसरे बच्चे को भी यही दोष होने की संभावना बढ़ जाती है। यदि किसी महिला के दो पहले बच्चों को यह समस्या हो और महिला को भी जन्म के समय न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट हुआ हो तो ऐसे में उसके तीसरे बच्चे को पैदा होते समय यह समस्या होने का खतरा काफी बढ़ जाता है।
     
  • दवाएं:
    उदाहरण के तौर पर गर्भावस्था के दौरान दौरे पड़ने की दवा (जैसे कि वालपोरिक एसिड) लेने से बच्चे को न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट होने की संभावना अधिक होती है। (और पढ़े - बच्चों को खांसी क्यों होती है)
     
  • डायबिटीज:
    जिन महिलाओं को डायबिटीज होती और वह अपने ब्लड शुगर को नियंत्रित नहीं करती हैं, तो ऐसे में होने वाले बच्चे को स्पाइना बाईफ़िडा की समस्या का खतरा रहता है। (और पढ़े - डायबिटीज में परहेज)
     
  • मोटापा:
    गर्भावस्था से पहले का मोटापा बच्चों में न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट से संबंधित होता है। 

(और पढ़ें - मोटापा कम करने के लिए डाइट चार्ट)

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स्पाइना बाइफ़िडा के सटिक कारणों का पता न होने की वजह से इसका बचाव करना मुश्किल होता है, लेकिन गर्भावस्था के समय फोलिक एसिड और समय पर टेस्ट करवाने से इस समस्या से काफी हद तक बचा जा सकता है।  

कई अध्ययन से इस बात का पता चला है कि फोलिक एसिड के साथ कई तरह के अन्य विटामिन लेने से बच्चे को स्पाइना बाइफ़िडा और अन्य जन्म दोष होने का खतरा कम हो जाता है। जो महिलाएं गर्भवती हैं या प्रेग्नेंसी के लिए प्रयास कर रही हैं उनकों दिन में करीब 400 माइक्रोग्राम (0.0004 ग्राम) फोलिक एसिड लेना चाहिए।

जबकि जिन महिलाओं को जन्म के समय स्पाइन बाइफ़िडा की समस्या होती है या जिन महिलाओं के पहले बच्चे को स्पाइना बाइफ़िडा होता है, उनको गर्भवती होने के कम से कम एक महीने पहले से शुरू करके गर्भवस्था के शुरूआती कुछ महीनों तक रोजाना करीब 4000 माइक्रोग्राम (0.004 ग्राम) फोलिक एसिड लेना चाहिए।

गहरे रंग की सब्जियों, अंडे की जर्दी, चावल व अन्य कुछ खाद्य पदार्थों में भरपूर मात्रा में फोलिक एसिड पाया जाता है। 

(और पढ़े - प्रेगनेंसी डाइट चार्ट)

गर्भ के पल रहे भ्रूण में स्पाइना बाइफ़िडा व अन्य जन्म दोषों की पहचान के लिए निम्नलिखित टेस्ट किए जाते हैं।

  • ब्लड टेस्ट:
    ब्लड टेस्ट में मां के रक्त का सैंपल लेकर विशेष तरह के प्रोटीन की जांच की जाती है, जिसको एएफपी (AFP) कहा जाता है। यह प्रोटीन बच्चे के शरीर में बनता है। अगर मां के रक्त में एएफपी का स्तर अधिक हो तो ऐसे में बच्चे को स्पाइन बाइफ़िडा व अन्य न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट होने का खतरा होता है। (और पढ़े - प्रोलैक्टिन परीक्षण क्या है)
     
  • अल्ट्रसाउंड:
    अल्ट्रासाउंड में उच्च ध्वनि तरंगे ऊतकों से टकराकर एक चित्र बनाती है, जिस चित्र को आप कंप्यूटर स्क्रिन पर देख सकते हैं। यदि आपके गर्भ में पल रहें बच्चे को स्पाइना बाइफ़िडा होता है, तो अल्ट्रासाउंड के चित्र में रीढ़ की हड्डी का खुलना और रीढ़ की हड्डी से किसी थैली का उभार दिखने लगता है। (और पढ़ें - बिलीरुबिन टेस्ट क्या है)
     
  • एमीनोसेन्टीसिस (Amniocentesis):
    अगर ब्लड टेस्ट में एएफपी का स्तर अधिक हो और अल्ट्रासाउंड में स्थिति सामान्य लगें तो ऐसे में डॉक्टर एमीनोसेन्टीसिस की सलाह देते हैं। इस परीक्षण में डॉक्टर एक सुई की सहायता से मां के गर्भ के एमनियोटिक थैली (गर्भ में मौजूद द्रव) के तरल का सैपंल लेते हैं। अगर उस तरल पदार्थ में एएफपी का उच्च स्तर हो, तो इसका मतलब है कि बच्चे की थैली के आसपास की त्वचा सही तरह से नही बन पाई है और एमनियोटिक थैली में एएफपी का रिसाव होने लगा है। (और पढ़े - एलिसा टेस्ट क्या है)

कुछ मामलों में बच्चे के जन्म के बाद स्पाइना बाइफ़िडा की पहचान की जाती है। इस स्थिति में डॉक्टर एक्स रे और एमआरआई के द्वारा बच्चे के पूरे शरीर की जांच करते हैं। 

(और पढ़ें - गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर से चेकअप)

स्पाइन बाइफ़िडा का इलाज उसकी गंभीरता के आधार पर निर्भर करता है। स्पाइना बिफिडा अकल्टा होने पर किसी भी तरह के इलाज की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि अन्य प्रकार के स्पाइना बिफिडा में इलाज की जरूरत पड़ती है। स्पाइन बाइफ़िडा के इलाज के बारे में आगे विस्तार से जानें:

जन्म से पहले सर्जरी:
जन्म के बाद बच्चे के स्पाइन बाइफ़िडा का इलाज न करने पर नसों की कार्य प्रणाली पर गहरा दुष्प्रभाव होता है। जबकि जन्म से पहले (26 सप्ताह के गर्भकाल से पहले) होने वाली सर्जरी से स्पाइना बाइफिडा को ठीक किया जाता है। इस ऑपरेशन में डॉक्टर मां के गर्भाशय को खोलकर बच्चे के मेरुदंड को ठीक कर देते हैं।  इस प्रकार की सर्जरी से बच्चे को जन्म संबंधी दोष होने का खतरा कम हो जाता है, जबकि इस प्रक्रिया में मां को खतरा अधिक होता है। साथ ही इसमें बच्चे के समय से पहले पैदा होने की संभावनाएं भी अधिक होती है। 

(और पढ़े - बच्चे को पानी कितना पिलाना चाहिए)

जन्म के बाद सर्जरी:
मेनिनगोसील की सर्जरी में मेनिन्जेस को सही स्थान पर पहुंचाया जाता है और खुली हुई कशेरुकाओं (vertebrae) को बंद कर दिया जाता है। इस स्थिति में बच्चे की मेरूदंड सामान्य तरीके से बढ़ती है, जिसके चलते झिल्ली को आसानी से हटाया जा सकता है और इससे तंत्रिका मार्गों को कोई नुकसान भी नहीं होता है।

(और पढ़ें - बच्चों के यूरिन इन्फेक्शन का इलाज)

स्पाइना बाईफ़िडा के अन्य प्रकार माइलोमेनिनगोसील में भी सर्जरी की आवश्यकता होती है। समय रहते सर्जरी करने से बच्चे को तंत्रिकाओं के अन्य संबंधित संक्रमण और मेरुदंड को होने वाली अन्य क्षति से बचाया जा सकता है। इस दौरान डॉक्टर मेरुदंड और अन्य ऊतकों को बच्चे के शरीर के अंदर कर देते हैं और उनको मांसपेशियों व त्वचा से ढक देते हैं। कई मामलों में बच्चे के दिमाग में पानी भरने की स्थिति को रोकने के लिए ऑपरेशन की मदद से शंट नामक विशेष उपकरण बच्चे की मेरुदंड में लगा दिया जाता है।  

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