मोटापे से ग्रस्त गर्भवती महिलाएं बेहतर आहार और शारीरिक गतिविधियों की मदद से अपने होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य खतरों को कम कर सकती हैं। यूनाइटेड किंगडम (यूके) स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ साउथहैंप्टन के वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन के हवाले से यह जानकारी दी है। इस स्टडी को प्लोस मेडिसिन नामक मेडिकल पत्रिका ने प्रकाशित किया है। रिपोर्ट के मुताबिक, अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जेस्टेशनल डायबिटीज मेलिटस (जीडीएम) से ग्रस्त मांओं में ग्लूकोस की ज्यादा मात्रा होने के प्रभावों और नवजातों के डीएनए में होने वाले बदलावों की जांच की है।
हाल के समय में पूरी दुनिया में मोटापे के साथ जीडीएम के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है। गर्भावस्था के दौरान दिखने वाली यह कंडीशन प्रेग्नेंसी और बच्चे के जन्म से संबंधित खतरों को बढ़ा सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे बच्चे में आगे चलकर मेटाबॉलिक बीमारी होने का खतरा भी बढ़ सकता है। अध्ययनकर्ताओं की मानें तो प्रेग्नेंसी के दौरान मांओं में जीडीएम के साथ ग्लूकोस लेवल का ज्यादा बढ़ना विकसित हो रहे भ्रूण में एपिजेनेटिक बदलावों की वजह बन सकता है। यानी भ्रूण के वंशाणुओं की गतिविधि को संचालित करने वाले जेनेटिक ब्लूप्रिंट में केमिकल मोडिफिकेशन हो सकते हैं। इससे बच्चे की सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा होता है।
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हालांकि नए अध्ययन में पता चला है कि आहार में सुधार (डायट्री मोडिफिकेशन) कर और फिजिकल एक्टिविटी को जरूरत के हिसाब से बढ़ाकर इस खतरे को कम किया जा सकता है। इस बारे में बात करते हुए यूनिवर्सिटी ऑफ साउथहैंप्टन की शोधकर्ता और अध्ययन की लेखक कैरन लिलीक्रॉप ने बताया, 'स्टडी के परिणाम बताते हैं कि डाइट और फिजिकल एक्टिविटी में सुधार करने से उनके (गर्भवती महिलाएं) बच्चों के विकास पर (सकारात्मक) प्रभाव पड़ता है।'
इस दावे से पहले शोधकर्ताओं ने मोटापे से पीड़ित 550 से ज्यादा गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों का अध्ययन किया। इसके तहत किए गए ट्रायल का उद्देश्य पूरे यूके में मोटापे से ग्रस्त गर्भवती महिलाओं के आहार और शारीरिक गतिविधियों में सुधार करना था। इसके लिए अध्ययन में शामिल कुछ प्रतिभागी महिलाओं को कंट्रोल ग्रुप के रूप में अलग रखा गया ताकि उनके स्वास्थ्य की तुलना बाकी प्रतिभागियों से की जा सके। इन महिलाओं की जीवनशैली में किसी तरह का बदलाव नहीं किया गया था।
जांच-पड़ताल के दौरान पता चला कि जिन महिलाओं के आहार और फिजिकल एक्टिविटी में बदलाव किए गए थे, उनकी मेटाबॉलिक हेल्थ में तेजी से सुधार देखने को मिला था। इसके लिए महिलाओं की डाइट में लोअर ग्लाइकेमिक फूड का इस्तेमाल किया गया, जो ब्लड शुगर लेवल कम करने में मददगार माना जाता है। वहीं, कम फैट वाला आहार शामिल करते हुए महिलाओं की शारीरिक गतिविधि बढ़ा दी गई, जिससे ज्यादा हेल्दी मेटाबॉलिक रिजल्ट मिले।
बाद में शोधकर्ताओं ने दोनों समूहों के बीच तुलना की। इसमें उन्होंने जीडीएम से पीड़ित मांओं और अन्य महिलाओं के नवजात बच्चों में डीएनए मेथलेशन के लेवल और पैटर्न की जांच की। यह प्रमुख एपिजेनेटिक मकैनिज्म नवजात शिशुओं की जीन एक्टिविटी को नियंत्रित करने का काम करता है। तुलना के दौरान यह जानने का प्रयास किया गया कि प्रेग्नेंसी के समय जीडीएस से ग्रस्त जिन महिलाओं के आहार और फिजिकल एक्टिविटी में बदलाव किए गए थे, उससे उनके नवजात शिशुओं में वांछित परिवर्तन हुए थे या नहीं।
इसमें पता चला कि शिशुओं के डीएनए से जुड़े फंक्शनल मोडिफिकेशन के लेवल और पैटर्न में हुए बदलाव का उनकी मांओं के जीडीएम और हाई ग्लूकोस लेवल से संबंध था। यह भी सामने आया कि जीडीएम प्रभावित मदर्स के डायट्री चेंजेस और एक्सरसाइज इंटरवेंशन से शिशुओं में ये मेथलेशन चेंजेस तेजी से कम हुए थे। इस बारे में अध्ययन के लेखकों का कहना है कि जेस्टेशनल डायबिटीज से पीड़ित मांओं के बच्चों में मोटापे और खराब ग्लूकोस कंट्रोल का खतरा ज्यादा होता है।
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