जब हम रोगजनक सूक्ष्मजीवों की बात करते हैं तो इस संदर्भ में म्यूटेशन यानी परिवर्तन या तब्दीली सबसे बदतर चीज है, जो हमारे दिमाग में आती है। हॉलिवुड की कई फिल्मों में आपने ये देखा भी होगा कि किस तरह से एक वायरस अपना रूप बदलकर कयामत जैसी परिस्थिति पैदा कर देता है। कुछ ऐसा ही इन दिनों सच में हमारी दुनिया में देखने को मिल रहा है जहां सार्स-सीओवी-2 नाम के वायरस ने महामारी फैला रखी है और आए दिन इस वायरस में म्यूटेशन हो रहा है, जिसकी वजह से इसके एक नए स्ट्रेन के बारे में जानकारी मिल रही है। नए कोरोना वायरस के कई स्ट्रेन ऐसे भी हैं जो पिछले वाले से ज्यादा संक्रामक और खतरनाक हैं।

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म्यूटेशन हकीकत में होने वाली अवधारणा है और यह लैब में अचानक हो जाने वाली किसी घटना से कहीं अधिक है। (कोविड-19 के लिए जिम्मेदार वायरस को जानवरों से इंसान में ट्रांसफर होने के लिए खुद को म्यूटेट करना पड़ा होगा) म्यूटेशन की वजह से हमेशा ही वायरस की उग्रता बढ़ जाए ऐसा जरूरी नहीं है। बल्कि जब बात वायरस की वजह से होने वाली बीमारी की आती है तो कई बार म्यूटेट वायरस अपने मूल वर्जन से अलग नहीं होता। और कई बार इस बात की भी संभावना होती है कि वायरस, इंसानों को संक्रमित करने की अपनी सारी क्षमता ही खो दे। 

इन दिनों यूके में सामने आए सार्स-सीओवी-2 वायरस के नए स्ट्रेन की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है और ऐसा कहा जा रहा है कि इस नए स्ट्रेन में संक्रमण फैलाने की क्षमता काफी अधिक है और इस वजह से यह सुपरस्प्रेडर हो सकता है। लेकिन वायरल म्यूटेशन को लेकर अक्सर पूछे जाने सवाल जैसे - आखिर ये म्यूटेशन क्या है और ये होता क्यों है? म्यूटेशन होने के बाद क्या वायरस ज्यादा खतरनाक हो जाता है? इस तरह के कई और सवालों के बारे में हम आपको यहां जानकारी दे रहे हैं। 

  1. म्यूटेशन क्या है? - What is a Mutation in Hindi?
  2. वायरस म्यूटेट क्यों होता है? - Why do Virus Mutate in Hindi?
  3. क्या म्यूटेट होने के बाद वायरस कम या ज्यादा घातक हो जाता है? - After Mutation does Virus become more or less lethal in Hindi?
  4. क्या मौसम में बदलाव की वजह से वायरस म्यूटेट होता है? - Do Virus Mutate due to change in weather in Hindi?
  5. अगर वायरस म्यूटेट होता है तो क्या आउटब्रेक लंबे समय तक बना रहता है? - If Virus Mutates will the Outbreak last longer in Hindi?
  6. अगर वायरस के एक स्ट्रेन से बीमार हुआ व्यक्ति रिकवर हो चुका है तो क्या वह वायरस के दूसरे स्ट्रेन से फिर से बीमार हो सकता है? - If you contract and recover from one strain of Virus, can you still contract another strain and fall sick in Hindi?
  7. क्या किसी व्यक्ति में एक ही समय पर वायरस के 2 स्ट्रेन मौजूद हो सकते हैं? - Can two strain of Virus be seen in one person at the same time in Hindi?
  8. क्या वायरस को मारा जा सकता है? सार्स आउटब्रेक अपने आप कैसे खत्म हो गया? - Can Virus be killed? Why did SARS Outbreak end on its own in Hindi?
  9. अगर वायरस म्यूटेट हो जाता है तो क्या वही सेम दवा उस पर भी काम करेगी? - Can the same medicine work if the Virus Mutates?
  10. क्या वैक्सीन वायरस के ज्यादातर स्ट्रेन्स के खिलाफ सुरक्षा देती है? - Do Vaccines protect against most strains of virus?
वायरल म्यूटेशन : अक्सर पूछे जाने वाले सवाल के डॉक्टर

साधारण शब्दों में कहें तो किसी जीव के डीएनए सीक्वेंस में होने वाला बदलाव ही म्यूटेशन है। म्यूटेशन 2 कारणों से हो सकता है- या तो कोशिका विभाजन के दौरान होने वाली किसी गलती की वजह से या फिर किसी निश्चित रसायन, आयनित विकिरण या वायरल इंफेक्शन के संपर्क में आने की वजह से। जब भी किसी जीवित कोशिका का विभाजन होता है तो उसे अपनी सारी आनुवंशिक साम्रगियों (डीएनए) को नई कोशिका में कॉपी करना होता है। हमारे शरीर में होने वाली हर एक घटना के लिए डीएनए (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) कोड होता है। त्वचा का रंग, आंखों का रंग और इम्यून सिस्टम कितना मजबूत होगा इन सभी चीजों का निर्धारण डीएनए ही करता है।

रिप्लिकेशन यानी प्रतिकृति बनाने की यह प्रक्रिया पूरी तरह से अचूक नहीं है और इसमें गलतियां होने की आशंका बनी रहती है। अगर किसी जीन के कोड में एक भी बदलाव हो जाए तो वह जीन अलग तरह से खुद को अभिव्यक्त करने लगता है, या फिर अलग तरह के प्रोटीन का निर्माण करने लगता है या फिर पूरी तरह से अभिव्यक्ति को बंद कर देता है। अगर प्रोटीन कुछ निश्चित मेटाबॉलिक मार्ग या शरीर के कुछ महत्वपूर्ण कार्यों में अहम भूमिका निभाता है तो ऐसी स्थिति में म्यूटेशन का, फेनोटाइपिक यानी समलक्षणीय परिवर्तन पर असर पड़ सकता है, जिसे शारीरिक रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए - सिकल सेल एनीमिया के मामले में, एक सिंगल म्यूटेशन के कारण जीन अलग तरह के प्रोटीन का निर्माण करने लगता है और इस कारण यह सिकल सेल बीमारी के रूप में प्रदर्शित होता है।

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हालांकि, यहां अच्छी बात ये है कि अधिकांश जीवों में (सभी में नहीं) इन म्यूटेशन्स को रोकने या म्यूटेशन होने के बाद उन्हें बेअसर करने के लिए एक प्रूफरीडिंग यानि विश्लेषण तंत्र मौजूद होता है। साथ ही म्यूटेशन इतना बड़ा नहीं होता कि वह जीन की कार्य प्रणाली को ही बदल सके। अगर ऐसा होता भी है तब भी अलग-अलग जीवों में (जिसमें इंसान भी शामिल हैं) एक ही प्रकार के जीन के जोड़े (पेयर) होते हैं। कई बार खुद को अभिव्यक्त करने के लिए म्यूटेशन का जीन के दोनों पेयर में मौजूद होना जरूरी होता है वरना यह म्यूटेशन सिर्फ छिपी हुई अवस्था में रह जाता है। ऐसे व्यक्ति वैसे तो पूरी तरह से सही रहते हैं, लेकिन उस म्यूटेशन के कैरियर बन जाते हैं। जिस म्यूटेशन की वजह से बीटा-थैलसीमिया बीमारी होती है वह इस तरह के एक म्यूटेशन का ही उदाहरण है। 

जनन कोशिका जैसे- स्पर्म या अंडाणु- में अगर किसी तरह का म्यूटेशन होता है तो यह अगली पीढ़ी में ट्रांसफर हो सकता है। हालांकि, शरीर की किसी अन्य कोशिका में होने वाला म्यूटेशन अगली पीढ़ी में हस्तांरित नहीं होता।

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कोई भी जीव म्यूटेट तब होता है जब उस पर विकास संबंधी दबाव बनाया जाता है - जब जीवित रहने के लिए विकसित होने की जरूरत हो। जिन वायरस के पास आनुवंशिक सामग्री (जेनेटिक मटीरियल) के तौर पर डीएनए होता है वे इतनी जल्दी म्यूटेट नहीं होते और उनका म्यूटेशन रेट काफी धीमा होता है - कुछ सौ या कुछ हजार कॉपीज बनाने के बाद 1 म्यूटेशन। तो वहीं दूसरी तरफ आरएनए वायरस जैसे - कोरोना वायरस और इन्फ्लूएंजा वायरस बेहद तेजी से म्यूटेट होते हैं - एक म्यूटेशन प्रति कॉपी। इसका प्रमुख कारण ये है कि आरएनए कॉपी बनाने की प्रक्रिया में प्रूफरीडिंग की कमी होती है- जो कि डीएनए प्रक्रिया में मौजूद होता है। जब प्रूफरीडिंग नहीं हो पाती तो म्यूटेशन्स होते रहते हैं और यह अगली पीढ़ी में भी हस्तांतिरत हो जाता है।

किसी शारीरिक या रासायनिक बदलाव, कुछ निश्चित होस्ट एंजाइम और प्रतिकृति बनाने के बाद हुई गलतियों को ठीक न कर पाने की वजह से न्यूक्लिक एसिड को जो नुकसान होता है उसकी वजह से भी वायरस म्यूटेट होते हैं। आमतौर पर, वैसे म्यूटेशन्स जो वायरस की होस्ट कोशिकाओं को संक्रमित करने की क्षमता को प्रभावित नहीं करते हैं वे एक बड़ी आबादी में बने रहते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि सार्स-सीओवी-2 वायरस के प्रतिकृति बनाने की प्रक्रिया में प्रूफरीडिंग तंत्र है, जिसकी वजह से उसके कई जीनोम अब तक संरक्षित हैं।

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जब कोई वायरस म्यूटेट होता है उसके बाद वह या तो ज्यादा या कम उग्र और संक्रामक हो सकता है। सभी जीव म्यूटेशन रेट को कम ही रखने की कोशिश करते हैं, क्योंकि अगर हर पीढ़ी में बहुत अधिक म्यूटेशन्स हों तो हानिकारक म्यूटेशन का जोखिम बढ़ जाता है। हालांकि, अध्ययनों में यह दिखाया गया है कि किसी जीव को जितना ज्यादा प्रतिकूल वातावरण में रखा जाता है, उसके म्यूटेशन का पक्ष लेने की संभावना उतनी ही अधिक होती है, चूंकि यहां पर इस बात का चांस अधिक होता है कि एक फायदेमंद म्यूटेशन होगा।

आरएनए वायरस को खासतौर पर म्यूटेशन पर बढ़त हासिल होती है चूंकि अपनी प्रतिकृति बनावट के लिए वे खुद कोड करते हैं, इसलिए कुछ हद तक वे म्यूटेशन का अनुकूल तरीके से इस्तेमाल कर पाते हैं अलग-अलग वातावरण में अपने फिटनेस लेवल को बनाए रखने के लिए। यही कारण है कि आरएनए वायरस अपने होस्ट को जल्दी-जल्दी बदल सकते हैं (जैसे- जानवरों से इंसान में) और इम्यून प्रतिक्रिया से बच सकते हैं या फिर पहले से मौजूद प्रभावी दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी बन सकते हैं।   

कई बार म्यूटेशन की वजह से वायरस जिस कोशिका पर हमला करने वाला होता है उसमें भी बदलाव हो जाता है। हालांकि, आरएनए वायरस के मामले जिसका जीनोम छोटा होता है, इस बात की संभावना अधिक होती है कि म्यूटेशन समय के साथ इक्ट्ठा होने लगता है और वायरस की पैथोजेनिसिटी यानी बीमारी पैदा करने की क्षमता को कम कर देता है और वह भी इस हद तक कि वायरस किसी निश्चित आबादी से पूरी तरह से गायब हो जाता है।

अनुसंधानकर्ताओं की मानें तो आरएनए वायरस की म्यूटेशन दर (भले ही यह उच्च हो) अब भी एक सीमा के अंदर ही है जहां यह वायरस के लिए घातक हो सकता है- एक ऐसी अवधारणा जिसे एरर थ्रेशहोल्ड (गलती की सीमा या दहलीज) कहते हैं। यह सेलेक्शन के दबाव के बावजूद वायरस को सफल और संभव बनाता है। पियर रिव्यूड जर्नल नैशनल साइंस रिव्यूज में प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक, सार्स-सीओवी-2 वायरस 2 प्रमुख प्रकार में पहले ही विकसित हो चुका है- पैतृक कम संक्रामक एस टाइप और संशोधित ज्यादा संक्रामक और उग्र एल टाइप।

(और पढ़ें - कोरोना वायरस के नए स्ट्रेन के ज्यादा जानलेवा होने के सबूत नहीं)

स्टडी के मुताबिक, एल-टाइप सार्स-सीओवी-2 वायरस चीन के वुहान स्थित 70 प्रतिशत मामलों में मौजूद था और बाकी 30 प्रतिशत में एस टाइप। हालांकि, जनवरी 2020 के बाद चीन में (जहां ये स्टडी की गई थी) एल टाइप की फ्रीक्वेंसी कम हो गई। चूंकि अब एस-टाइप वायरस पर दबाव कम हो गया, इसलिए अब यह ज्यादा दूर-दूर तक फैल रहा है। चीन में हुई एक और स्टडी में यह सुझाव दिया गया है कि सार्स-सीओवी-2 में अब तक करीब 30 म्यूटेशन्स हो चुके हैं। लैब में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि सार्स-सीओवी-2 के कुछ प्रकार ऐसे भी हैं जिनमें सामान्य से 270 गुना ज्यादा वायरल लोड उत्पन्न करने की क्षमता है।

यह शायद सबसे कॉमन सवाल है जो ज्यादातर लोगों के मन में होता है और यह मौसमी फ्लू के नेचर को देखते हुए हमारे मन में आता है। हालांकि, अब तक इस बारे में पर्याप्त सबूत मौजूद नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि मौसम में बदलाव की वजह से वायरस म्यूटेट होता है या अपना रूप परिवर्तित करता है।

इन्फ्लूएंजा वायरस इंफेक्शन सबसे ज्यादा सर्दियों के मौसम में दिखता है, इसका कारण ये है कि स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां होती हैं (चूंकि फ्लू ज्यादातर बच्चों को प्रभावित करता है)। इसके अलावा सर्दियों में लोग घरों के अंदर बंद रहते हैं और एक-दूसरे के बेहद नजदीक रहते हैं- यह भी सर्दियों में फ्लू सीजन होने का एक अहम कारण हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि फ्लू ठंडे तापमान में फैलता है, लेकिन फ्लू उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी देखा जाता है जहां अधिक गर्मी होती है। कुछ इलाकों में फ्लू आउटब्रेक गर्मियों के महीने में भी देखे जाते हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि फ्लू सीजन का ठंडे मौसम से कोई लेना-देना नहीं है।

(और पढ़ें - बच्चों में फ्लू)

क्लिनिकल माइक्रोबायोलॉजी एंड इंफेक्शन नाम के जर्नल में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक, इंसान के शरीर में सर्दी के मौसम में विटामिन डी की कमी की वजह से इम्यूनिटी कमजोर हो जाती है और इस कारण श्वसन संबंधी वायरल इंफेक्शन होता है।

अध्ययनों में यह दिखाया गया है कि इस बात में शायद कोई सच्चाई न हो। एक वायरस खासतौर पर आरएनए वायरस में एक सिंगल होस्ट के अंदर ही ढेर सारे म्यूटेशन्स हो सकते हैं। हालांकि, ज्यादातर मामलों में इन म्यूटेशन्स का नई कोशिकाओं को संक्रमित करने या वायरस द्वारा अपना प्रतिरूप बनाने की क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। इस तरह के वेरिएंट को फिर नैचरल सेलेक्शन प्रोसेस के जरिए हटा दिया जाता है।

आरएनए वायरस में भले ही म्यूटेशन्स बार-बार औऱ जल्दी-जल्दी होते हों, लेकिन किसी म्यूटेशन को सिर्फ तभी चुना जाता है अगर वह किसी तरह से वायरस को कोई फायदा पहुंचा रहा हो। इसके अलावा वायरस की कई खूबियां होती हैं- जिसमें उसकी उग्रता और एक होस्ट से दूसरे में फैलने की क्षमता शामिल है- जिन्हें संरक्षित करने की जरूरत होती है, ताकि वायरस के जीवित रहने की क्षमता को बनाए रखा जा सके। ये खूबियां आमतौर पर एक से अधिक जीन द्वारा कोड की जाती हैं और इसलिए इनमें बदलाव होने की आशंका कम होती है। ऐसा बेहद कम देखने में आता है जब बेहद कम समय में कोई वायरस अपने ट्रांसमिशन मोड को बदलता है।

इससे पहले इन्फ्लूएंजा वायरस में अचानक हुए सिंगल म्यूटेशन- जिसे एंटिजेनिक शिफ्ट कहते हैं- के कारण फ्लू आउटब्रेक हुआ था। हालांकि, फ्लू में भी इस तरह के बदलाव होने की आशंका बेहद कम होती है। आमतौर पर, फ्लू वायरस नियमित या क्रमिक रूप से म्यूटेट होते हैं- समय के साथ छोटे-छोटे म्यूटेशन्स इक्ट्ठा होते जाते हैं जिसे एंटीजेनिक ड्रिफ्ट कहते हैं। एंटीजेनिक ड्रिफ्ट ही वह कारण है जिसकी वजह से हर साल नया फ्लू स्ट्रेन आता है, जिसके लिए हर साल नई फ्लू वैक्सीन बनायी जाती है। इसके विपरित वायरल म्यूटेशन (अगर यह पर्याप्त रूप से हानि पहुंचाने वाला है) महामारी को पूरी तरह से रोक सकता है। 

(और पढ़ें - इन्फ्लूएंजा टीकाकरण क्या है)

वायरल स्ट्रेन आनुवंशिक रूप से एक ही वायरस के अलग-अलग वेरिएंट हैं जो मूल वायरस में हुए म्यूटेशन्स के कारण बनते हैं। वायरस का नया स्ट्रेन दूसरे स्ट्रेन से कम संक्रामक हो सकता है या फिर उसमें होस्ट के इम्यून सिस्टम के पकड़ में न आने का भी तंत्र हो सकता है। अगर होस्ट का इम्यून सिस्टम इस नए स्ट्रेन को पहचान नहीं पाता है तब इस बात की आशंका अधिक होती है कि वह उस व्यक्ति को फिर से संक्रमित कर सकता है जो उस वायरस के मूल स्ट्रेन से संक्रमित होकर ठीक भी हो चुका है।

इन्फ्लूएंजा वायरस में ऐसा बार-बार होता है। डेंगू वायरस का भी 4 अलग-अलग सेरोटाइप है। सेरोटाइप, स्ट्रेन से अलग होता है। सेरोटाइप में किसी प्रजाति में जीव का एक समूह होता है जिसमें एक ही प्रकार और संख्या के एंटीजेन होते हैं। वहीं दूसरी तरफ स्ट्रेन में फेनोटाइपिक और जीनोटाइपिक दोनों तरह के बदलाव होते हैं। अगर किसी व्यक्ति को डेंगू वायरस के एक सेरोवर से इंफेक्शन होता है तो उसे बाकी तीनों सेरोवर्स से कुछ महीनों तक सुरक्षा मिलती है लेकिन उसके बाद व्यक्ति को बाकी के स्ट्रेन्स से डेंगू इंफेक्शन हो सकता है। डेंगू वायरस से हुआ पहला इंफेक्शन ही व्यक्ति को दूसरे गंभीर इंफेक्शन के लिए अतिसंवेदनशील बना देता है और इसका कारण है मौजूदा एंटीबॉडीज जो शरीर में इन्फ्लेमेशन पैदा करती हैं।

(और पढ़ें- डेंगू के घरेलू उपाय)

यह पूरी तरह से संभव है कि कोई व्यक्ति एक ही समय पर सेम वायरस के कई सारे स्ट्रेन्स से संक्रमित हो जाए। इन्फ्लूएंजा वायरस के मामले में इस तरह का संक्रमण ही सबसे बड़ा कारण है वायरस के नए स्ट्रेन के विकास के लिए। मान लीजिए कोई व्यक्ति 2 अलग प्रकार के इन्फ्लूएंजा वायरस के संक्रमित है, तो नए स्ट्रेन में वायरस के दोनों स्ट्रेन के जेनेटिक मटीरियल के कुछ हिस्से होंगे। तब ये नया स्ट्रेन ज्यादा तेजी से फैलेगा।

(और पढ़ें - फ्लू के घरेलू उपाय)

अध्ययनों में यह दिखाया गया है कि स्वाइन फ्लू महामारी (जिसकी शुरुआत 2009 में मेक्सिको में हुई थी) इस तरह के स्ट्रेन की वजह से ही हुई थी। स्वाइन फ्लू के लिए जिम्मेदार स्ट्रेन में 4 अलग-अलग तरह के फ्लू वायरस- स्वाइन फ्लू, हम्यून फ्लू और बर्ड फ्लू का मिश्रण मौजूद था।

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वायरस हकीकत में जीवित नहीं होते। वे न्यूक्लिक एसिड (डीएनए/आरएनए) होते हैं जो प्रोटीन कोटिंग में लिपटे होते हैं। वायरस में लिपिड और कई अन्य पदार्थ भी होते हैं। जब वायरस किसी जीवित कोशिका के अंदर प्रवेश करता है तभी वह अपना प्रतिरूप बनाकर अपनी संख्या बढ़ाता है। अमेरिका के सीडीसी के मुताबिक, किसी होस्ट के बाहर वायरस निर्जीव ही होता है और कुछ कीटाणुनाशक जिनमें एथील और आइसोप्रोपिल अल्कोहल 60 से 80 प्रतिशत की सघनता में होते हैं वे ज्यादातर वायरस को निष्क्रिय कर सकते हैं।

वायरस को मारने या जड़ से उखाड़ने का एक और तरीका ये है कि किसी निश्चित वायरस के खिलाफ आबादी की इम्यूनिटी को बेहतर बनाया जाए। हालांकि, इम्यूनिटी विकसित करने के लिए जरूरी है कि आप पहले उस वायरस से संक्रमित हों या आपका टीकाकरण हो। सार्स के मामले में कहा जा रहा है कि कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, मजबूत टेस्टिंग और कई दूसरे पब्लिक हेल्थ उपायों की वजह से सार्स बीमारी पैदा करने वाला वायरस गायब हो गया। चूंकि बीमारी फैलने की चेन टूट चुकी थी (सार्स-सीओवी-2 वायरस के लिए भी ट्रांसमिशन चेन तोड़ने की कोशिश हो रही है) इसलिए वायरस ज्यादा फैल नहीं सका और गायब हो गया।

हालांकि, एक्सपर्ट्स का सुझाव है कि सार्स का खतरा अब भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है कि और यह अब भी मौजूद है और इस बात की आशंका बनी हुई है कि सार्स बीमारी फैलाने वाला वायरस म्यूटेट होकर दोबारा इंसानों में दिख सकता है।

(और पढ़ें - सार्स से भी ज्यादा खतरनाक क्यों है सार्स-सीओवी-2)

जब रोगजनक जीवाणुओं की बात आती है तो ड्रग रेजिस्टेंस यानी दवा के प्रति प्रतिरोध की क्लिनिकल अहमियत बढ़ जाती है, खासकर उन वायरस में जो जल्दी-जल्दी म्यूटेट होते हैं। ज्यादातर एंटीवायरल दवाइयां वायरस द्वारा अपना प्रतिरूप बनाने के तरीकों को ही टार्गेट करती हैं। ऐसे मामलों में जहां सही इलाज लिया जाता है और दवा किसी निश्चित आबादी से वायरस को पूरी तरह से हटाने में सफल रहती है, तब दवा की तरफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना नहीं रहती। हालांकि, अगर वायरस शरीर से पूरी तरह से खत्म नहीं होता तब वायरस पर यह प्रेशर होता है कि वह दवा के असर से बच निकले और उसके खिलाफ प्रतिरोधी हो जाए।

इसके अलावा, अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि कुछ मामलों में वायरस की आबादी अपनी प्रतिकृति के साथ इस तरह से तालमेल बिठाती है कि वायरस की नई पीढ़ी उस वक्त उभरती है जब शरीर में दवा की सघनता सबसे कम होती है। इस प्रक्रिया को ड्रग रेजिस्टेंस बाई सिंक्रोनाइज़ेशन कहते हैं। विशिष्ट म्यूटेशन तब होते हैं जब उनकी जरूरत होती है और सभी म्यूटेशन्स ड्रग-रेजिस्टेंट म्यूटेशन नहीं होते।

भारत में हुई एक प्रीप्रिंट स्टडी में यह सुझाव दिया गया है कि सार्स-सीओवी-2 वायरस जो भारत में मौजूद है वह किसी अलग तरह से विकसित हुआ है उन स्ट्रेन्स की तुलना में जो दुनिया के बाकी हिस्सों में मौजूद हैं। वायरस के स्पाइक पर एक अनोखा म्यूटेशन होता है जो टार्गेट की तरह काम करता है होस्ट एंटीवायरल-आरएनए के लिए जिसे hsa-miR27b कहते हैं। स्टडी के मुताबिक,hsa-miR27b एचआईवी के प्रतिकृति बनाने की प्रक्रिया को रोक देता है और यही कारण है कि भारत में एंटी-एचआईवी दवाइयां सफल रही हैं, जबकि दुनिया के बाकी हिस्सों में इस दवा के बारे में परस्पर विरोधी रिपोर्ट्स सामने आयी हैं। स्टडी में आगे बताया गया है कि भारत में एंटी-मलेरिया दवाइयों के सफल रहने का भी कारण यही कारण हो सकता है।

वैक्सीन या तो मोनोवैलेंट (एक-संयोजक) हो सकती है जो वायरस के सिंगल स्ट्रेन के खिलाफ सुरक्षा देती है या फिर मल्टीवैलेंट (बहु-संयोजक) जो वायरस के ढेर सारे स्ट्रेन्स के खिलाफ सुरक्षा देती है। उदाहरण के लिए- खसरा की वैक्सीन एक-संयोजक है जबकि पोलियो की वैक्सीन बहु-संयोजक। इन्फ्लूएंजा की वैक्सीन जिन्हें हर साल बनाया जाता है वे उस साल दुनियाभर में मौजूद वायरस के सभी स्ट्रेन्स के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करती हैं। साल 2019 का फ्लू शॉट क्वॉड्रिवैलेंट था यानि इसमें वायरस के 4 स्ट्रेन्स थे।

मल्टीवैलेंट या पॉलिवैलेंट वैक्सीन में ढेर सारे स्ट्रेन्स के एंटीजेन होते हैं। जब वैक्सीन के जरिए हमारा इम्यून सिस्टम इन एंटीजेन के संपर्क में आता है तो वह उनके खिलाफ एंटीबॉडीज का निर्माण करता है जिससे टार्गेट रोगाणु के खिलाफ हमें सुरक्षा मिलती है।

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उत्पाद या दवाइयाँ जिनमें वायरल म्यूटेशन : अक्सर पूछे जाने वाले सवाल है

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