कोविड-19 दुनिया के लिए बिलकुल नया वायरस है और इसे अस्तित्व में आए महज 3 महीने का वक्त ही हुआ है। दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में इस वायरस का पहला मामला आया था और तब से लेकर अब तक इस नए सार्स-सीओवी-2 वायरस ने दुनियाभर में एक तरह से आतंक मचा रखा है। इस वायरस से होने वाली बीमारी कोविड-19 की वजह से अब तक 1 लाख 14 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और करीब 18 लाख से भी ज्यादा लोग दुनियाभर में इस बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं।

चूंकि अब तक इस वायरस का कोई इलाज या टीका खोजा नहीं जा सका है, लिहाजा इससे बचने के लिए सुरक्षात्मक कदम उठाना और दूसरों से खासकर वैसे लोग जो बीमार हैं उनसे दूरी बनाकर रखना ही बीमारी से बचने का एकमात्र विकल्प है। हालांकि, दुनियाभर में अस्पतालों में भर्ती कोविड-19 मरीजों के इलाज के लिए अलग-अलग तरह की कई दवाइयों का इस्तेमाल किया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के पास भी अब तक 44 वैक्सीन कैंडिडेट्स की सूची है जिसमें से 2 वैक्सीन क्लीनिकल फेज में हैं जबकी 42 प्रीक्लीनिकल फेज में (ऐनिमल या लैब स्टडी). एक्सपर्ट्स की मानें तो अगर सभी चीजें सही तरीके से चलीं तो कोविड-19 के वैक्सीन को तैयार होने में 1 से डेढ़ साल का समय लग सकता है।

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लेकिन यहां पर सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर एक ऐसी संक्रामक बीमारी जिसने पूरी दुनिया को इतनी तेजी से अपनी गिरफ्त में ले लिया है उसका टीका बनने में इतना ज्यादा समय क्यों लग रहा है?

  1. टीका विकसित करने की प्रक्रिया
  2. वैक्सीन को कौन तैयार करता है?
  3. ह्यूमन चैलेंज ट्रायल
कोविड-19 की वैक्सीन तैयार करने की प्रक्रिया क्या है, यहां जानें पूरी डीटेल के डॉक्टर

वैक्सीन यानी टीका बनाना एक लंबी प्रक्रिया है। टीका तैयार करने के लिए, अनुसंधानकर्ताओं को सबसे पहले जिस रोगाणु के खिलाफ टीका बनाना है उस रोगाणु को आइसोलेट करना पड़ता है। आमतौर पर एक टीका एक ही रोगाणु के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। कोविड-19 बीमारी के लिए जिम्मेदार रोगकारक जीवाणु सार्स-सीओवी-2 को पहले ही दुनिया के कई देश आइसोलेट कर चुके हैं। जनवरी 2020 में पहली बार चीन ने इसे आइसोलेट किया था। वायरस को आइसोलेट करने के बाद टीका विकसित करने की पूरी प्रक्रिया विभिन्न चरणों से होकर गुजरती है:

एक्सप्लोरेशन यानी खोज: इस चरण में वैज्ञानिक अलग-अलग तरह के एंटीजन की खोज करते हैं (वायरस में मौजूद प्रोटीन/रोगाणु जिसके खिलाफ शरीर का इम्यून सिस्टम प्रतिक्रिया देता है) जिनका इस्तेमाल वायरस के खिलाफ किया जा सकता है। यह वायरल न्यूक्लिइक ऐसिड (डीएनए या आरएनए) का हिस्सा होता है या फिर कमजोर या मर चुके वायरस का हिस्सा।

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प्रीक्लीनिकल चरण: इस चरण में टीके (वैक्सीन) को लैब में या जानवरों पर टेस्ट किया जाता है ताकि उसकी सुरक्षा और वह कितना असरदार है इसकी जांच की जा सके। जब यह बात साबित हो जाती है कि वैक्सीन कैंडिडेट से इम्यूनिटी का निर्माण होता है और इसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है तभी टीके को अगले चरण के लिए भेजा जाता है।

क्लीनिकल चरण: टीके के क्लीनिकल विकास के दौरान 3 चरण होते हैं जिसमें वैक्सीन कितनी सेफ है और कितनी असरदार है इसकी जांच की जाती है।

  • पहले फेज में 100 से कम स्वंयसेवकों पर इस वैक्सीन को टेस्ट किया जाता है ताकि यह पता चल सके कि यह कितनी सुरक्षित है और इंसान का शरीर इस टीके के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दे रहा है।
  • दूसरे फेज में 100 से ज्यादा प्रतिभागियों पर टेस्ट किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि टीका जरूरी इम्यून रिस्पॉन्स उत्पन्न कर पा रहा है या नहीं। साथ ही इसका डोज और टीकाकरण शेड्यूल भी जांचा जाता है।
  • तीसरे और आखिरी फेज में वैज्ञानिक 1 हजार से ज्यादा स्वंयसेवकों पर इस टीके को टेस्ट करते हैं ताकि यह पता चल सके कि यह कितना असरदार है और इसका कोई साइड इफेक्ट है या नहीं।

अलग-अलग रेग्युलेटरी एजेंसियों की तरफ से स्वीकृति और एथिकल क्लियरेंस मिलने के बाद ही वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल शुरू होता है। वैक्सीन का तीसरा चरण सबसे लंबा होता है और पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा समय इसी में लगता है। हालांकि इस चरण को सफल तभी कहा जा सकता है जब टेस्टिंग लैब या कंपनी को वैक्सीन के लिए लाइसेंस मिल जाए।

अगर टीके में लैब में निर्मित कई सारे प्रॉडक्ट्स हों या फिर जेनेटिकली मॉडिफाइड जीवाणु हों या फिर कुछ भी ऐसा जिससे वातावरण को लेकर चिंता हो सकती है तो इसके लिए संबंधित विभाग से भी मंजूरी लेनी पड़ती है। किसी कंपनी को वैक्सीन बनाने का लाइसेंस मिलने के बाद भी इतनी मात्रा में वैक्सीन का उत्पादन हो पाए कि वह आम जनता को मिल सके, इसमें काफी वक्त लगता है।

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लॉट रिलीज: यह एक ऐसी नियामक प्रक्रिया है जिसे मार्केट में टीके के हर लॉट यानी हिस्से को रिलीज करने से पहले किया जाता है। इस दौरान प्रॉडक्शन डेटा की जांच की जाती है और तैयार प्रॉडक्ट का क्वॉलिटी कंट्रोल टेस्ट भी किया जाता है। मार्केट में कोई नई वैक्सीन को रिलीज करने के बाद पोस्ट मार्केटिंग सर्विलांस यानी निगरानी की जाती है। यह देखने के लिए वैक्सीन कैसा प्रदर्शन कर रही है और इसका कोई साइड इफेक्ट तो नहीं दिख रहा। अगर जरूरत पड़ती है तो किसी आबादी के खास ग्रुप पर वैक्सीन का चौथा चरण का ट्रायल भी किया जाता है।

आमतौर पर एक वैक्सीन को बनकर तैयार होने में 6 से 10 साल तक का समय लगता है। इस पूरी प्रक्रिया से तुलना करें तो कोविड-19 का प्रस्तावित क्रमविकास यानी टाइमलाइन पहले से ही काफी कम है।

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टीके को बनाने की प्रक्रिया में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े कई प्रफेशनल्स शामिल होते हैं:

  • एकैडमिक और मेडिकल एक्सपर्ट: वायरस या रोगाणु के बारे में शोध करने के लिए। एंटीजन खोजने और टेस्ट करने के लिए ताकि वैक्सीन कितनी सुरक्षित है यह पता लगाया जा सके और वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया में कोई बाधा न आए। ये एक्सपर्ट्स सबूतों के आधार पर टीकाकरण से जुड़ी प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी देते हैं और पिछली शोधों में क्या हुआ था, यह भी बताते हैं।
  • मैन्युफैक्चरिंग फर्म: आमतौर पर कोई प्राइवेट फार्मासूटिकल कंपनी होती है जो इस रिसर्च में पैसा लगाती है।
  • स्वंयसेवक या वॉलंटियर्स: क्लीनिकल ट्रायल में हिस्सा लेने वाले लोग
  • रेग्युलेटरी एजेंसियां: कंपनी को वैक्सीन बनाने के लिए लाइसेंस दिया जा सके और साथ ही ये भी देखने के लिए कि तैयार वैक्सीन का हर लॉट (हिस्सा) जरूरी क्वॉलिटी स्टैंडर्ड के मुताबिक है या नहीं।

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वैक्सीन को तैयार करने में लगने वाले समय को और कम करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक नई बात सामने रखी है और वह ह्यूमन चैलेंज ट्रायल। विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO की मानें तो ह्यूमन चैलेंज ट्रायल ऐसा शोध है जिसमें स्वंयसेवकों या वॉलंटियर्स को जानबूझकर संक्रामक रोगाणु से संक्रमित किया जाता है। यह 2 कारणों से किया जाता है। पहला- टीका विकसित करने के मकसद से और दूसरा- रोगाणु से जुड़ी विशेषताएं क्या-क्या हैं इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए।

ह्यूमन चैलेंज ट्रायल के कई लक्ष्य हो सकते हैं:

  • बीमारी के लक्षण और ट्रांसम्यूटैबिलिटी (बीमारी कितनी जल्दी और कितने तरह से फैल रही है) को समझने के लिए।
  • इंसान का इम्यून सिस्टम यानी रोगों से लड़ने की क्षमता किसी खास रोगाणु के खिलाफ किस तरह की प्रतिक्रिया देती है और वैक्सीन को क्या-क्या करने की जरूरत है ताकि इंसान को इस बीमारी से बचाया जा सके।
  • ट्रायल के तीसरे चरण से जुड़ी विभिन्न बातों खासकर एंडपॉइंट (ट्रायल से क्या हासिल करने की कोशिश की जा रही है) को जानने के लिए।
  • वैक्सीन के वैसे कैंडिडेट्स जो असरदार नहीं हैं उन्हें हटाकर सिर्फ बेस्ट कैंडिडेट्स को ही वैक्सीन की क्षमता के ट्रायल के लिए भेजा जा सके।

अगर ह्यूमन चैलेंज ट्रायल करने की इजाजत दी जाए तो इससे वैक्सीन के विकास के तीसरे चरण को पूरी तरह से हटाया जा सकता है और तब यह वैक्सीन अपने अपेक्षित समय से कहीं ज्यादा जल्दी तैयार हो जाएगी। ह्यूमन चैलेंज ट्रायल के जरिए लाइसेंज के अनुरोध को जल्दी डाला जा सकेगा जिससे प्रक्रिया और तेज हो जाएगी। हालांकि इससे जुड़े कई नैतिक और सुरक्षात्मक चिंताएं हैं जिसके बारे में सोचना चाहिए, इससे पहले कि वैज्ञानिक ह्यूमन चैलेंज ट्रायल करने को लेकर हामी भरें।

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उदाहरण के लिए- इंसानों पर चैलेंज ट्रायल किसी भी ऐसी संक्रामक बीमारी के लिए नहीं किया जा सकता जिसकी मृत्यु दर काफी अधिक हो और या फिर जिसका कोई इलाज या उसे कंट्रोल करने का तरीका ही पता न हो। अगर चैलेंज ट्रायल किसी मामले में होता भी है तो रिसर्च टीम जो इस चैलेंज ट्रायल को करती है उन्हें इस बात का ध्यान रखना होता है कि इस शोध में सिर्फ वैसे लोग ही शामिल किए जाएं जिन्होंने अपनी मर्जी से स्वीकृति दी हो। साथ ही अगर शोध में भर्ती किए गए लोगों को बीमारी हो जाती है तो उनका सही तरीके से पूरा इलाज भी किया जाना चाहिए। स्वंयसेवी के तौर पर जिन लोगों को चुना जाता है वे वैसे लोग नहीं होने चाहिए जिन्हें उस रोगाणु से गंभीर इंफेक्शन होने का बहुत अधिक खतरा हो।

ट्रायल के लिए इस्तेमाल होने वाला बीमारी का रोगाणु या तो कमजोर वर्जन वाला हो सकता है या फिर रोगाणु का किसी तरह का जेनेटिकली मॉडिफाइड वर्जन। इससे पहले भी कई तरह की बीमारियां जैसे- मलेरिया, कॉलेरा, नोरोवायरस, इन्फ्लूएंजा और डेंगू के लिए ह्यूमन इंफेक्शन स्टडीज की जा चुकी है।

सार्स-सीओवी-2 के लिए ह्यूमन चैलेंज ट्रायल का प्रस्तावित मॉडल

जर्नल ऑफ इन्फेक्शियस डिजीज नाम की पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित एक शोध में स्टडी डिजाइन प्रस्तावित की गई है जिसके तहत सार्स-सीओवी-2 का ह्यूमन चैलेंज ट्रायल किया जा सकता है। ट्रायल कैसे होगा उसका एक नमूना आप यहां देख सकते हैं:

  • वैसे लोग जिन्हें वायरस से एक्सपोजर का खतरा सबसे अधिक है उनमें से कुछ वॉलंटियर्स को चुना जाएगा
  • ये वैसे लोग होंगे जिन्हें देश के हाई-रिस्क क्षेत्रों से चुना जाएगा।
  • ये वॉलंटियर्स 20 से 45 साल के एज ग्रुप के होंगे जिनमें कोविड-19 का सिर्फ माइल्ड केस ही देखने को मिलता है। इसलिए ऐसे लोगों की मौत की आशंका बेहद कम होगी।
  • इन लोगों को स्टडी में नामांकित करने से पहले सभी प्रतिभागियों से उनकी स्वीकृति ली जाएगी और उन्हें शोध से जुड़े रिस्क के बारे में भी बताया जाएगा। उसके बाद वैसे प्रतिभागी जो अपनी मर्जी से स्वीकृति देंगे सिर्फ उन्हें ही शोध में शामिल किया जाएगा।
  • इसके बाद सिर्फ उन्हीं लोगों को चुना जाएगा जो पहले कभी इस इंफेक्शन से पीड़ित नहीं हुए हैं। इसके बाद सभी प्रतिभागियों को कम से कम 2 हफ्ते के लिए क्लीनिकल आइसोलेशन में रखा जाएगा। ताकि यह पता चल सके कि उनके शरीर में वायरस के खिलाफ पहल से एंटीबॉडीज विकसित हैं या नहीं। सेरोलॉजिकल टेस्टिंग के जरिए इसका पता चलेगा।
  • जिनके शरीर में एंटीबॉडीज होंगे उन्हें शोध से हटा दिया जाएगा जिसके बाद सिर्फ वैसे लोग बचेंगे जो इस वायरस के प्रति कभी भी एक्सपोज नहीं हुए।
  • इसके बाद इन लोगों को वायरस से एक्सपोज किया जाएगा ताकि वे इस बीमारी से उतनी ही गंभीर रूप से बीमार पड़े जितना वे प्राकृतिक माहौल में रहकर बीमार होते। ऐसा करने के लिए शोध में शामिल चैलेंज ग्रुप की तुलना उसी उम्र के वैसे लोगों से की जाएगी जिन्हें प्राकृतिक रूप से यह इंफेक्शन हुआ हो।
  • इसके बाद चैलेंज ग्रुप के सभी लोगों को या तो कैंडिडेट वैक्सीन दी जाएगी या फिर प्लेसबो।
  • इसके बाद वैज्ञानिक ग्रुप के सभी लोगों पर नजर रखेंगे यह जानने के लिए कि जिन लोगों को वैक्सीन दी गई क्या उनका इम्यून रिस्पॉन्स वैक्सीन न मिलने वालों से अलग है या नहीं।
  • चैलेंज ट्रायल करने से पहले ही वैक्सीन की शेड्यूल, डोज और सैफ्टी से जुड़ी बातों को तय कर लिया जाएगा।
  • चूंकि कुछ वॉलंटियर्स में बीमारी के लक्षण दिखेंगे इसलिए शोध कें अंत से जुड़े कुछ सेट क्राइटेरिया होंगे जिसके बाद वॉलंटियर्स को इलाज के लिए भेज दिया जाएगा और शोध खत्म हो जाएगा। इसके लिए इंसान के शरीर में मौजूद वायरस की मात्रा या वायरल लोड की जांच की जाएगी। जब वायरल लोड एक निश्चित सीमा को पार कर जाता है तब यह तय किया जाता है कि व्यक्ति को इलाज की जरूरत है या नहीं। वायरल लोड को जांचने के लिए हर दिन वॉलंटियर का नेजोफैरिंगल स्वैब टेस्ट किया जाएगा। स्टडी का एंडपॉइंट वह भी हो सकता है कि कितने वॉलंटियर्स को यह इंफेक्शन हुआ।
  • वैक्सीन कितनी असरदार है यह जानने के लिए सेरोलॉजिकल शोध भी किए जा सकते हैं।
  • जिन लोगों को संक्रमित किया गया था उन्हें प्राथमिकता के आधार पर इलाज मुहैया कराया जाएगा।
  • जब तक इंफेक्शन पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता तब तक सभी प्रतिभागियों को आइसोलेशन में रखा जाएगा।

जब यह ट्रायल फेज सफल हो जाएगा उसके बाद वैक्सीन की टेस्टिंग को बड़े पैमाने पर नैचरल सेटिंग में हजारों लोगों पर किया जा सकता है। इस दौरान वैक्सीन की सुरक्षा और वह कितनी असरदार है यह जानने के लिए लोगों पर नजर भी रखी जाएगी। इस स्टडी को वैसे लोगों पर भी किया जा सकता है जिन्हें इंफेक्शन का खतरा अधिक है यानी बुजुर्ग, पहले से बीमारी से पीड़ित और वैसे लोग जिनकी इम्यूनिटी कमजोर है। ये दोनों ही तरह के शोध मिलकर कंपनी को वैक्सीन का लाइसेंस दिलवाने के लिए काफी होंगे।

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संदर्भ

  1. World Health Organization [Internet]. Geneva (SUI): World Health Organization; Coronavirus disease
  2. World Health Organization [Internet]. Geneva (SUI): World Health Organization; Biologicals
  3. Balasingam Shobana, Horby Peter, Wilder-Smith Annelies. The potential for a controlled human infection platform in Singapore. Singapore Med J. 2014 Sep; 55(9): 456–461. PMID: 25273928.
  4. Eyal Nir, Lipsitch Marc, Smith Peter G. Human Challenge Studies to Accelerate Coronavirus Vaccine Licensure. The Journal of Infectious Diseases, jiaa152. 2020.
  5. Eyal Nir, Lipsitch Marc, Smith Peter G. Human Challenge Studies to Accelerate Coronavirus Vaccine Licensure. The Journal of Infectious Diseases, jiaa152. 2020.
  6. Milken Institute School of Public Health: The George Washington University [Internet]. Washington DC. US; Producing Prevention: The Complex Development of Vaccines
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