वैक्सीन को तैयार करने में लगने वाले समय को और कम करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक नई बात सामने रखी है और वह ह्यूमन चैलेंज ट्रायल। विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO की मानें तो ह्यूमन चैलेंज ट्रायल ऐसा शोध है जिसमें स्वंयसेवकों या वॉलंटियर्स को जानबूझकर संक्रामक रोगाणु से संक्रमित किया जाता है। यह 2 कारणों से किया जाता है। पहला- टीका विकसित करने के मकसद से और दूसरा- रोगाणु से जुड़ी विशेषताएं क्या-क्या हैं इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए।
ह्यूमन चैलेंज ट्रायल के कई लक्ष्य हो सकते हैं:
- बीमारी के लक्षण और ट्रांसम्यूटैबिलिटी (बीमारी कितनी जल्दी और कितने तरह से फैल रही है) को समझने के लिए।
- इंसान का इम्यून सिस्टम यानी रोगों से लड़ने की क्षमता किसी खास रोगाणु के खिलाफ किस तरह की प्रतिक्रिया देती है और वैक्सीन को क्या-क्या करने की जरूरत है ताकि इंसान को इस बीमारी से बचाया जा सके।
- ट्रायल के तीसरे चरण से जुड़ी विभिन्न बातों खासकर एंडपॉइंट (ट्रायल से क्या हासिल करने की कोशिश की जा रही है) को जानने के लिए।
- वैक्सीन के वैसे कैंडिडेट्स जो असरदार नहीं हैं उन्हें हटाकर सिर्फ बेस्ट कैंडिडेट्स को ही वैक्सीन की क्षमता के ट्रायल के लिए भेजा जा सके।
अगर ह्यूमन चैलेंज ट्रायल करने की इजाजत दी जाए तो इससे वैक्सीन के विकास के तीसरे चरण को पूरी तरह से हटाया जा सकता है और तब यह वैक्सीन अपने अपेक्षित समय से कहीं ज्यादा जल्दी तैयार हो जाएगी। ह्यूमन चैलेंज ट्रायल के जरिए लाइसेंज के अनुरोध को जल्दी डाला जा सकेगा जिससे प्रक्रिया और तेज हो जाएगी। हालांकि इससे जुड़े कई नैतिक और सुरक्षात्मक चिंताएं हैं जिसके बारे में सोचना चाहिए, इससे पहले कि वैज्ञानिक ह्यूमन चैलेंज ट्रायल करने को लेकर हामी भरें।
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उदाहरण के लिए- इंसानों पर चैलेंज ट्रायल किसी भी ऐसी संक्रामक बीमारी के लिए नहीं किया जा सकता जिसकी मृत्यु दर काफी अधिक हो और या फिर जिसका कोई इलाज या उसे कंट्रोल करने का तरीका ही पता न हो। अगर चैलेंज ट्रायल किसी मामले में होता भी है तो रिसर्च टीम जो इस चैलेंज ट्रायल को करती है उन्हें इस बात का ध्यान रखना होता है कि इस शोध में सिर्फ वैसे लोग ही शामिल किए जाएं जिन्होंने अपनी मर्जी से स्वीकृति दी हो। साथ ही अगर शोध में भर्ती किए गए लोगों को बीमारी हो जाती है तो उनका सही तरीके से पूरा इलाज भी किया जाना चाहिए। स्वंयसेवी के तौर पर जिन लोगों को चुना जाता है वे वैसे लोग नहीं होने चाहिए जिन्हें उस रोगाणु से गंभीर इंफेक्शन होने का बहुत अधिक खतरा हो।
ट्रायल के लिए इस्तेमाल होने वाला बीमारी का रोगाणु या तो कमजोर वर्जन वाला हो सकता है या फिर रोगाणु का किसी तरह का जेनेटिकली मॉडिफाइड वर्जन। इससे पहले भी कई तरह की बीमारियां जैसे- मलेरिया, कॉलेरा, नोरोवायरस, इन्फ्लूएंजा और डेंगू के लिए ह्यूमन इंफेक्शन स्टडीज की जा चुकी है।
सार्स-सीओवी-2 के लिए ह्यूमन चैलेंज ट्रायल का प्रस्तावित मॉडल
जर्नल ऑफ इन्फेक्शियस डिजीज नाम की पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित एक शोध में स्टडी डिजाइन प्रस्तावित की गई है जिसके तहत सार्स-सीओवी-2 का ह्यूमन चैलेंज ट्रायल किया जा सकता है। ट्रायल कैसे होगा उसका एक नमूना आप यहां देख सकते हैं:
- वैसे लोग जिन्हें वायरस से एक्सपोजर का खतरा सबसे अधिक है उनमें से कुछ वॉलंटियर्स को चुना जाएगा
- ये वैसे लोग होंगे जिन्हें देश के हाई-रिस्क क्षेत्रों से चुना जाएगा।
- ये वॉलंटियर्स 20 से 45 साल के एज ग्रुप के होंगे जिनमें कोविड-19 का सिर्फ माइल्ड केस ही देखने को मिलता है। इसलिए ऐसे लोगों की मौत की आशंका बेहद कम होगी।
- इन लोगों को स्टडी में नामांकित करने से पहले सभी प्रतिभागियों से उनकी स्वीकृति ली जाएगी और उन्हें शोध से जुड़े रिस्क के बारे में भी बताया जाएगा। उसके बाद वैसे प्रतिभागी जो अपनी मर्जी से स्वीकृति देंगे सिर्फ उन्हें ही शोध में शामिल किया जाएगा।
- इसके बाद सिर्फ उन्हीं लोगों को चुना जाएगा जो पहले कभी इस इंफेक्शन से पीड़ित नहीं हुए हैं। इसके बाद सभी प्रतिभागियों को कम से कम 2 हफ्ते के लिए क्लीनिकल आइसोलेशन में रखा जाएगा। ताकि यह पता चल सके कि उनके शरीर में वायरस के खिलाफ पहल से एंटीबॉडीज विकसित हैं या नहीं। सेरोलॉजिकल टेस्टिंग के जरिए इसका पता चलेगा।
- जिनके शरीर में एंटीबॉडीज होंगे उन्हें शोध से हटा दिया जाएगा जिसके बाद सिर्फ वैसे लोग बचेंगे जो इस वायरस के प्रति कभी भी एक्सपोज नहीं हुए।
- इसके बाद इन लोगों को वायरस से एक्सपोज किया जाएगा ताकि वे इस बीमारी से उतनी ही गंभीर रूप से बीमार पड़े जितना वे प्राकृतिक माहौल में रहकर बीमार होते। ऐसा करने के लिए शोध में शामिल चैलेंज ग्रुप की तुलना उसी उम्र के वैसे लोगों से की जाएगी जिन्हें प्राकृतिक रूप से यह इंफेक्शन हुआ हो।
- इसके बाद चैलेंज ग्रुप के सभी लोगों को या तो कैंडिडेट वैक्सीन दी जाएगी या फिर प्लेसबो।
- इसके बाद वैज्ञानिक ग्रुप के सभी लोगों पर नजर रखेंगे यह जानने के लिए कि जिन लोगों को वैक्सीन दी गई क्या उनका इम्यून रिस्पॉन्स वैक्सीन न मिलने वालों से अलग है या नहीं।
- चैलेंज ट्रायल करने से पहले ही वैक्सीन की शेड्यूल, डोज और सैफ्टी से जुड़ी बातों को तय कर लिया जाएगा।
- चूंकि कुछ वॉलंटियर्स में बीमारी के लक्षण दिखेंगे इसलिए शोध कें अंत से जुड़े कुछ सेट क्राइटेरिया होंगे जिसके बाद वॉलंटियर्स को इलाज के लिए भेज दिया जाएगा और शोध खत्म हो जाएगा। इसके लिए इंसान के शरीर में मौजूद वायरस की मात्रा या वायरल लोड की जांच की जाएगी। जब वायरल लोड एक निश्चित सीमा को पार कर जाता है तब यह तय किया जाता है कि व्यक्ति को इलाज की जरूरत है या नहीं। वायरल लोड को जांचने के लिए हर दिन वॉलंटियर का नेजोफैरिंगल स्वैब टेस्ट किया जाएगा। स्टडी का एंडपॉइंट वह भी हो सकता है कि कितने वॉलंटियर्स को यह इंफेक्शन हुआ।
- वैक्सीन कितनी असरदार है यह जानने के लिए सेरोलॉजिकल शोध भी किए जा सकते हैं।
- जिन लोगों को संक्रमित किया गया था उन्हें प्राथमिकता के आधार पर इलाज मुहैया कराया जाएगा।
- जब तक इंफेक्शन पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता तब तक सभी प्रतिभागियों को आइसोलेशन में रखा जाएगा।
जब यह ट्रायल फेज सफल हो जाएगा उसके बाद वैक्सीन की टेस्टिंग को बड़े पैमाने पर नैचरल सेटिंग में हजारों लोगों पर किया जा सकता है। इस दौरान वैक्सीन की सुरक्षा और वह कितनी असरदार है यह जानने के लिए लोगों पर नजर भी रखी जाएगी। इस स्टडी को वैसे लोगों पर भी किया जा सकता है जिन्हें इंफेक्शन का खतरा अधिक है यानी बुजुर्ग, पहले से बीमारी से पीड़ित और वैसे लोग जिनकी इम्यूनिटी कमजोर है। ये दोनों ही तरह के शोध मिलकर कंपनी को वैक्सीन का लाइसेंस दिलवाने के लिए काफी होंगे।
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