कोविड-19 महामारी की वजह बना नया कोरोना वायरस सार्स-सीओवी-2 खरगोशों को भी संक्रमित कर सकता है और वे इस वायरस के इन्सानों में फैलने का संभावित माध्यम भी हो सकते हैं। नीदरलैंड में हुए एक अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह संभावना जताई है। इससे नए कोरोना वायरस से जानवरों की एक और प्रजाति के लिए खतरा पैदा होने के संकेत मिलते हैं। साथ ही वायरस के जानवरों से इन्सानों में फैलने के एक और संभावित स्रोत का पता चलता है। अध्ययन से जुड़े परिणाम सामने आने के बाद नीदरलैंड के वैज्ञानिकों ने फार्म में पाले जाने वाले खरगोशों को लेकर तुरंत शोध करने की बात कही है। हालांकि यहां साफ कर दें कि यह अध्ययन अभी तक किसी मेडिकल पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुआ है। इसकी समीक्षा की जानी बाकी है। फिलहाल इसे मेडिकल शोधपत्र मुहैया कराने वाले ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बायोआरकाइव पर जाकर पढ़ा जा सकता है।
गौरतलब है कि सार्स-सीओवी-2 को इसके मूल स्रोत (जिस जीव में वायरस सबसे पहले पैदा हुआ) से इन्सानों के बीच पहुंचाने वाले मध्यस्थ स्रोत को लेकर कई तरह के अध्ययन किए जा चुके हैं। इनमें कुत्ता, बिल्ली से लेकर फेरेट (नेवले की एक प्रजाति), हैमस्टर (चूहे जैसा एक जानवर) और मिंक्स (ऊदबिलाव की एक प्रजाति) तक का नाम सामने आया है। इन आशंकाओं के चलते वैज्ञानिकों ने फार्म और घरों में पलने वाले जानवरों को लेकर खासी चिंता जताई है। ताजा अध्ययन की मानें तो खरगोश भी ऐसे ही जानवरों में आते हैं। ये फार्महाउस में बहुतायत में पाले जाते हैं और लोग इन्हें घरों में भी रखना पसंद करते हैं। मौजूदा अध्ययन में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि ये जानवर वायरस के प्रति कितने संवेदनशील हैं।
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अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लैब में तैयार की गई कोशिकाओं में खरगोश समेत अन्य जीवों (इन्सान और चीनी चमगादड़ की एक प्रजाति) के एसीई2 रिसेप्टर को इनजेक्ट किया। बता दें कि कोरोना वायरस के ट्रांसमिशन में इस रिसेप्टर प्रोटीन की भूमिका काफी अहम होती है। शोधकर्ताओं ने जाना कि इन्सानों के एसीई2 रिसेप्टर की तरह खरगोशों के एसीई2 रिसेप्टर भी वायरस के ट्रांसमिशन के लिए अनुकूल हैं। लैब में बनी कोशिकाओं में वैज्ञानिकों ने चमगादड़ की एक प्रजाति के एसीई2 रिसेप्टर को भी इनजेक्ट किया था। तुलना करने पर पता चला कि खरगोश के एसीई2 रिसेप्टर के प्रभाव के चलते कोशिकाएं वायरस के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गई थीं यानी आसानी से संक्रमित होने वाली बन गई थीं।
इस जानकारी के बाद तीन खरगोशों को संक्रमण वाले तीन इनजेक्शन लगाए गए और तीन हफ्तों तक उनमें इसके लक्षण दिखने का इंतजार किया गया। चूहों में संक्रमण के लक्षण नहीं दिखे। हालांकि इस दौरान वैज्ञानिक उनकी नाक, गले (14 दिन बाद) और मलाशय (9 दिन) से वायरल आरएनए लेने में कामयाब रहे। उन्होंने पाया कि नाक के स्राव में वायरस के संक्रामक पार्टिकल्स एक हफ्ते तक मौजूद रहे थे। पहले और सातवें दिन इनकी संख्या सबसे ज्यादा दिखी। गले के सैंपल में ऐसा केवल पहले दिन देखने को मिला। हालांकि मलाशय के सैंपल में वायरस नहीं मिला।
हालांकि इन परिणामों से जुड़ी कुछ कमियां भी निकल कर आई हैं। मसलन, वैज्ञानिकों ने शोध में जो खरगोश शामिल किए वे सभी युवा थे और उनकी इम्यूनिटी काफी अच्छी थी। यह एक बड़ी वजह हो सकती है कि उनमें संक्रमण के लक्षण दिखाई नहीं दिए। इसके अलावा, वे पहले से किसी और बीमारी से पीड़ित नहीं थे और एक ही ब्रीड के थे। यानी शोध के परिणामों को सभी प्रकार के खरगोशों के लिए मान्य नहीं माना जा सकता। इसके लिए सेरोलॉजिकल टेस्टिंग के साथ सर्विलेंस आधारित स्टडीज करनी होंगी ताकि पता लगाया जा सके फार्म में पलने वाले खरगोश किस सीमा तक वायरस की चपेट में आ चुके हैं।