एक एक्सपेरिमेंटल ड्रग से कोरोना वायरस की मात्रा में कमी करने में कामयाबी मिलने का दावा किया गया है। इस हफ्ते आई मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, यह ड्रग असल में एक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी है, जो कोविड-19 से रिकवर होने वाले एक मरीज के शरीर में पैदा हुए एंटीबॉडी की मैन्युफैक्चर्ड (कृत्रिम) कॉपी है। इस ड्रग का निर्माण करने वाली कंपनी एली लिली का दावा है कि ट्रायल में यह ड्रग कोविड-19 से नए-नए संक्रमित हुए मरीजों में सार्स-सीओवी-2 कोरोना वायरस के लेवल को कम करने में कारगर साबित हुआ है। कंपनी की मानें तो मोनोक्लोनल एंटीबॉडी की बदौलत कोरोना वायरस के मरीजों के अस्पताल में भर्ती होने की संभावना में भी कमी देखी गई है। इन परिणामों से उन वैज्ञानिकों की इस राय को बल मिला है, जिसमें वे मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज को कोविड-19 का प्रबल उपचार होने का दावा करते हैं। हालांकि इलाज का यह तरीका काफी मुश्किल भरा और मैन्युफैक्चरिंग के लिहाज से खासा खर्चीला है। साथ ही, इसकी प्रोग्रेस भी धीमी बताई जाती है।

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बहरहाल, एली लिली कंपनी के वैज्ञानिकों ने ड्रग को लेकर की गई घोषणा में ट्रायल से जुड़े विस्तृत आंकड़े पेश नहीं किए हैं और परिणामों की भी किसी मेडिकल पत्रिका द्वारा समीक्षा नहीं की गई है। बताया गया है कि मोनोक्लोनल ड्रग को लेकर किए गए दावे एक जारी ट्रायल के परिणामों के आधार पर किए गए हैं। इस ट्रायल में कोविड-19 के 450 से ज्यादा मरीजों में से किसी को एली लिली द्वारा निर्मित मोनोक्लोनल एंटीबॉडी दिया गया तो परिणामों की तुलना के लिए अन्य मरीजों को प्लसीबो ड्रग दिया गया। अध्ययन के दौरान यह पाया गया है कि जिन मरीजों को एली लिली द्वारा निर्मित ड्रग दिया गया था, उनमें से केवल 1.6 प्रतिशत को अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत पड़ी। वहीं, प्लसीबो वाले समूह में से छह प्रतिशत मरीजों को अस्पताल में एडमिट कराना पड़ा। कंपनी का दावा है कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी वाले समूह के मरीजों में अस्पताल में भर्ती होने का खतरा 72 प्रतिशत तक कम हुआ है। उनमें कोरोना वायरस का स्तर प्लसीबो ड्रग लेने वाले मरीजों की तुलना में तेजी से कम होने का दावा किया गया है और संक्रमण से जुड़े लक्षणों के भी काफी कम होने की बात कही गई है।

कोरोना वायरस के हल्के और सामान्य मरीजों के इलाज के संबंध में इस प्रयोग का काफी महत्व है। गौरतलब है कि इस समय दुनियाभर में कोरोना वायरस से गंभीर रूप से संक्रमित होने वाले लोगों के इलाज के लिए रेमडेसिवीर दवा और डेक्सामेथासोन स्टेरॉयड का इस्तेमाल किया जा रहा है। वहीं, ज्यादातर हल्के और सामान्य रूप से संक्रमित हुए लोगों को केवल ऑब्जर्वेशन में रखा जाता है और उनके प्राकृतिक रूप से या बाजार में उपलब्ध आम दवाओं से ठीक होने का इंतजार किया जाता है। लेकिन अगर एली लिली कंपनी का मोनोक्लोनल एंटीबॉडी बड़े ट्रायल में भी एक जैसे परिणाम देता है तो शायद कोविड-19 के कम गंभीर मरीजों को भी एक निर्धारित इलाज मिल सकता है। इससे गंभीर मरीजों की संख्या बढ़ने से रोकने में मदद मिलेगी।

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अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों के अलावा और अन्य मेडिकल एक्सपर्ट भी एंटीबॉडी के परीक्षण से जुड़े परिणामों को लेकर काफी उत्साहित नजर आते हैं। प्रतिष्ठित अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना के इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ एंड इन्फेक्शियस डिसीजेज के निदेशक डॉ. माइरन कोहेने कहते हैं कि नए मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के ट्रायल परिणामों से वे काफी प्रभावित हैं। उनकी मानें तो इस ड्रग के क्लिनिकल ट्रायल सख्ती से किए गए मालूम होते हैं, जिनके परिणाम वाकई में दमदार नजर आते हैं। डॉ. माइरन कहते हैं, 'दूसरी कंपनियां भी कोरोना वायरस पर मारने के लिए मोनोक्लोनल एंटीबॉडी बनाने में लगी हुई हैं। यह (बीमारी के खिलाफ) एक उम्मीद के बनने जैसा है।'

कैसी बनाई दवा?
मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज को कैंसर से लेकर आर्थराइटिस जैसr बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन इनका निर्माण काफी मुश्किल और खर्चीला होता है। कोरोना वायरस के खिलाफ मोनोक्लोनल एंटीबॉडी तैयार करने के लिए एली लिली ने उन लोगों का ब्लड प्लाज्मा बड़ी मात्रा में एकत्र करना पड़ा, जिन्होंने कोरोना वायरस को मात दे दी थी। इन प्लाज्मा सैंपलों से हजारों एंटीबॉडी निकाले गए। उनमें से कौन सा एंटीबॉडी वायरस के खिलाफ सबसे ज्यादा पावरफुल है, यह पता करने के लिए सभी एंटीबॉडीज के टेस्ट करने पड़े।

फिर फाइनली एक सक्षम रोग प्रतिरोधक का पता लगाकर उसके जेनेटिक सीक्वेंस को सुनिश्चित करने का काम किया गया। इसके बाद प्राप्त डीएनए को इस जेनेटिक सीक्वेंस के साथ ई कोली नामक बैक्टीरिया में इन्सर्ट किया गया ताकि उसे वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी संग्रह के रूप में तब्दील किया जा सके। इस प्रक्रिया के बाद बैक्टीरिया को स्टेनलेस स्टील से बने एक बड़े टब या टंकी में विकसित होने दिया गया। इस दौरान अध्ययन स्थल को कीटाणुहीन रखा गया और बैक्टीरियल सूप (जीवाण्विक रसा) को लगातार मॉनिटर किया गया ताकि वह किसी अन्य माइक्रोब से दूषित न हो जाए।

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एक बार जब पूरा टब बैक्टीरिया से भर गया और उनमें एंटीबॉडी भारी मात्रा में पैदा हो गए तो शोधकर्ताओं ने सूप को अलग करते हुए एंटीबॉडी को बतौर ड्रग इस्तेमाल करने के लिए इकट्ठा कर लिया। बाद में नए ड्रग को पैकेजिंग और लेबलिंग के लिए प्लांट भेजा गया। इस दौरान तमाम कंडीशन्स को कीटाणुओं से मुक्त रखने और एंटीबॉडी को ठंडा बनाए रखने का काम लगातार किया गया। इस पूरे काम में दो से चार हफ्तों का समय लगा। अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि इस खर्चीली प्रक्रिया के दौरान जिन परिस्थितियों में मोनोक्लोनल एंटीबॉडी की देखरेख की गई, उन्हें बरकरार रखने का काम करना होगा ताकि ड्रग के जरिये बड़ी मात्रा में एंटीबॉडी का निर्माण किया जा सके। उधर, शुरुआती परिणाम सामने आने के बाद कंपनी बड़े ट्रायल के तहत 800 मरीजों को शामिल करेगी, जिसमें सभी उम्र और सभी प्रकार के जोखिमों वाले संक्रमितों को ड्रग दिया जाएगा।


उत्पाद या दवाइयाँ जिनमें एली लिली द्वारा निर्मित मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से कोविड-19 के मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने से बचाने में वैज्ञानिक कामयाब, बड़े ट्रायल की तैयारी है

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