कोरोना वायरस को शरीर में फैलने से रोकने वाले एंटीबॉडीज की दो तरह प्रतिक्रियाओं ने सेरोलॉजिकल टेस्ट के परिणामों के संबंध में वैज्ञानिकों को सोच में डाल दिया है। दरअअसल, अमेरिका के टेक्सास यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 महामारी की वजह बने सार्स-सीओवी-2 कोरोना वायरस के खिलाफ पैदा हुए एंटीबॉडी से दो तरह के रेस्पॉन्स डिटेक्ट किए हैं, जो इस आशंका की ओर इशारा करते हैं कि सरकारों और स्वास्थ्य अधिकारियों को महामारी से निपटने के लिए अपने प्रयासों को और ज्यादा बढ़ाना पड़ सकता है।

यह मामला कोरोना वायरस के खिलाफ पैदा हुए एंटीबॉडीज की दो तरह की प्रतिक्रियाओं से जुड़ा है। अध्ययन के जरिये वैज्ञानिकों ने जाना है कि सार्स-सीओवी-2 के स्पाइक प्रोटीन को बांधने वाले एंटीबॉडी यानी एस-आरबीडी (स्पाइक प्रोटीन रिसेप्टर बाइंडिंग डोमने) वायरस को खत्म करने का काम करते हैं, वहीं इसी वायरस के खिलाफ पैदा हुए न्यूक्लोकैप्सिड प्रोटीन या एन-प्रोटीन अक्सर केवल यह बता पाते हैं कि शरीर वायरस की चपेट में आया है, लेकिन इन्फेक्शन फिर होने की सूरत में सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हुई है।

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जेसीआई इनसाइट पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड-19 की पुष्टि के लिए इस्तेमाल होने वाले सेरोलॉजिकल टेस्ट एलिसा (एंजाइन-लिंक्ड इम्यूनोसोरबेंट एस्से) की मदद से किए गए परीक्षणों के परिणामों से पता चला है कि एन-प्रोटीन आधारित सेरोलॉजी टेस्ट से संभवतः कोविड-19 के खिलाफ पैदा हुए सक्षम एंटीबॉडीज का पता न चले। इन परीक्षणों में वैज्ञानिकों ने 464 कोरोना वायरस और नॉन-कोरोना वायरस मरीजों से सिरम सैंपल इकट्ठा किए थे। उनके शरीर में एंटीबॉडी के सर्कुलेशन की पुष्टि के लिए एस-आरबीडी और एन-प्रोटीन आधारित रोग-प्रतिरोधकों का इस्तेमाल किया गया था। शोधकर्ताओं ने कुल 138 सिरम सैंपल का इस्तेमाल किया, जिनमें जून 2017 से जून 2020 के बीच अस्पतालों में भर्ती नॉन-कोविड-19 मरीजों के सैंपल भी शामिल थे।

परिणामों में पता चला कि इन सिरम सैंपलों में से तीन प्रतिशत (स्वस्थ और नॉन-कोविड सैंपल दोनों) में एन-प्रोटीन एंटीबॉडी पाया गया था। वहीं, एस-आरबीडी एंटीबॉडी केवल 1.6 प्रतिशत सैंपलों में पाया गया। वैज्ञानिकों ने जाना कि एस-आरबीडी एंटीबॉडी वाले सैंपलों में से 86 प्रतिशत में कोरोना वायरस को रोकने या खत्म करने की क्षमता थी। इसका मतलब है कि इन सैंपलों से संबंधित मरीज कोविड-19 के रीइन्फेक्शन को रोक सकते थे। वहीं, एन-प्रोटीन वाले सैंपलों में से 74 प्रतिशत में कोरोना वायरस के खिलाफ न्यूट्रलाइजिंग क्षमता देखी गई, जबकि सैंपलों में इनकी संख्या ज्यादा थी।

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इन परिणामों पर शोध में शामिल प्रमुख विज्ञानी डॉ. रघु कल्लूरी का कहना है, 'यह बताता है कि एन-प्रोटीन आधारित एंटीबॉडी में हमेशा एस-आरबीडी एंटीबॉडी नहीं होते, जिनकी मौजूदगी रीइन्फेक्शन के खिलाफ सुरक्षा मिलने का सबसे अच्छा संकेतक है। हमें एन-प्रोटीन आधारित सेरोलॉजी टेस्टों के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर चिंता है। हमारा मानना है कि कोविड-19 के खिलाफ भरोसेमंद इम्यूनिटी का पता करने के लिए सटीक और विश्वसनीय एस-आरबीडी सेरोलॉजिकल टेस्ट किए जाने चाहिए ताकि सक्षम एंटीबॉडी वाले संक्रमितों की पहचान की जा सके।'

डॉ. रघु कल्लूरी ने जो कहा वह कई मायनों में महत्वपूर्ण हो सकता है, विशेषकर प्लाज्मा थेरेपी के संबंध में। यह ज्ञात नहीं है कि भारत और अन्य देशों में जिन एंटीबॉडी टेस्टों की मदद से कोरोना संक्रमितों के शरीर में रोग प्रतिरोधकों की पहचान की जा रही है, वे एस-आरबीडी आधारित हैं या एन-प्रोटीन आधारित। डॉ. कल्लूरी और उनकी टीम के वैज्ञानिकों की बात सही है तो एस-आरबीडी टेस्ट की मदद से उन लोगों की पहचान आसानी से की जा सकती है, जिनके शरीर में कोरोना संक्रमण के खिलाफ पैदा हुए एंटीबॉडी वास्तव में सार्स-सीओवी-2 को रोक सकते हैं। इससे प्लाज्मा थेरेपी के परिणामों में सुधार देखने को मिल सकता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि आखिरकार किस व्यक्ति में कोविड-19 को मात देने वाले रोग प्रतिरोधक पैदा हुए हैं।

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उत्पाद या दवाइयाँ जिनमें कोविड-19 के खिलाफ इम्यूनिटी होने की पुष्टि एस-आरबीडी आधारित एंटीबॉडी टेस्ट से होनी चाहिए, जानें वैज्ञानिकों ने ऐसा क्यों कहा है

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