वैज्ञानिकों को संकेत मिले हैं कि कोविड-19 बीमारी को मात देने वाले लोगों में से कुछ का इम्यून सिस्टम उनके शरीर के खिलाफ काम कर रहा है, बिल्कुल उसी तरह जैसा लुपस या आर्थराइटिस जैसी बीमारियों में देखने को मिलता है। अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के तहत हुए इस अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा है कि कोरोना वायरस से रिकवर होने के बाद कुछ मरीजों के शरीर का डिफेंस सिस्टम उनके ही खिलाफ हमलावर रुख अपना लेता है। शोधकर्ताओं की मानें तो कोरोना संक्रमण से प्रभावित ऐसे मरीज 'ऑटोएंटीबॉडीज' नामक मॉलिक्यूल पैदा कर रहे हैं। इससे वायरस के बजाय ये एंटीबॉडीज मानव कोशिकाओं के जेनेटिक मटीरियल को निशाना बनाते हैं। यह मिसगाइडेड (रास्ते से भटका) इम्यून रेस्पॉन्स गंभीर कोविड-19 को और बढ़ा सकता है।
न्यूयॉर्क टाइम्स (एनवाईटी) में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, यह एक बड़ा कारण हो सकता है, जिसके चलते कोरोना वायरस से उबरने के बाद भी सर्वाइर्स में कई प्रकार की समस्याएं लंबे समय तक बनी रहती हैं। एनवाईटी ने बताया है कि इस अध्ययन को अभी तक किसी मेडिकल जर्नल द्वारा प्रकाशित नहीं किया गया है और न ही इसकी समीक्षा की गई है। फिलहाल इसे मेडिकल क्षेत्र के शोधकार्यों को ऑनलाइन प्रकाशित करने वाले प्लेटफॉर्म मेडआरकाइव पर पढ़ा जा सकता है। अध्ययन भले ही अभी तक किसी मेडिकल जर्नल में प्रकाशित नहीं हुआ है, लेकिन विशेषज्ञों ने कहा है कि इसके शोधकर्ता अपने चौकस और कुशल काम के लिए जाने जाते हैं। वहीं, अध्ययन के परिणाम इसलिए भी हैरान नहीं करते, क्योंकि अन्य वायरल रोगों में भी ऑटोएंटीबॉडी सक्रिय होते हैं।
यह पिछले कई महीनों से कहा जा रहा है कि नया कोरोना वायरस कुछ लोगों के इम्यून सिस्टम को उन्हीं के शरीर के खिलाफ भड़का सकता है। इस कारण शरीर को वायरस से ज्यादा इम्यून रेस्पॉन्स से नुकसान होता है। आमतौर पर वायरल संक्रमण होने पर संक्रमित मानव कोशिकाओं की मौत हो जाती है। लेकिन कभी-कभी ये सेल्स तीव्र संक्रमण के कारण अपने ही अंदर तेजी से बढ़ भी सकते हैं।
सामान्यतः किसी वायरस के खिलाफ काम करते हुए इम्यून सिस्टम के बी इम्यून सेल्स एंटीबॉडी बनाने लगते हैं, जो वायरस के वायरल आरएनए के टुकड़ों को पहचान कर उन्हें घेरकर लॉक कर देते हैं। लेकिन लुपस जैसी कंडीशन में बी सेल्स ऐसा नहीं कर पाते और वायरस को लॉक करने वाले रोग प्रतिरोधक का निर्माण करने के बजाय ऑटोएंटीबॉडी लगाने लगते हैं। नए अध्ययन की मानें तो कोविड-19 के मरीजों के शरीर में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होती है। इस पर बात कते हुए वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की इम्यूनोलॉजिस्ट मैरियन पेपर कहते हैं, 'जब भी शरीर में इन्फ्लेमेंशन और सेल डेथ का मिश्रण होता है तो ऑटोइम्यून डिसीज होने या ऑटोएंटीबॉडी बनने की संभावना होती है।' इस संबंध में एटलांटा स्थित इमोरी यूनिवर्सिटी के इम्यूनोलॉजिस्ट डॉ. मैथ्यू वूडरफ ने इसी महीने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि तीव्र कोविड-19 वाले रोगियों में अपरिष्कृत बी सेल्स होती हैं। इससे वूडरफ और उनके साथी वैज्ञानिकों को संकेत मिला था कि क्या बी सेल्स ही ऑटोएंटीबॉडी बनाती हैं।
बहरहाल, नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 52 ऐसे मरीजों की जांच की है, जिन्हें तीव्र या गंभीर कोविड-19 हुआ था, लेकिन उनमें ऑटोइम्यून डिसऑर्डर के लक्षण कभी नहीं रहे। स्टडी के दौरान पता चला कि लगभग आधे मरीजों में डीएनए की पहचान करने वाले ऑटोएंटीबॉडी मौजूद थे। इसके अलावा, वैज्ञानिकों को उनमें रूमटॉइड फैक्टर नामक प्रोटीन के खिलाफ भी एंटीबॉडी मिले जो ब्लड क्लॉटिंग में भूमिका निभाते हैं। डॉ. वूडरफ ने कहा कि सबसे ज्यादा गंभीर मरीजों में से 70 प्रतिशत से भी ज्यादा में ऑटोएंटीबॉडी मिले हैं।
इन कोविड-19 मरीजों के शरीर में पाए गए कुछ ऑटोएंटीबॉडी ब्लड फ्लो से संबंधित समस्याओं से जुड़े थे। यूनिवर्सिटी ऑफ मैसच्युसेट्स की इम्यूनोलॉजिस्ट ऐन मार्शक-रॉथस्टेन ने बताया, 'यह काफी हद तक संभव है कि कोविड-19 के मरीजों में (खून के) जमाव की समस्या इसी प्रकार की इम्यून जटिलताओं के कारण देखने को मिलती है।' डॉ. ऐन का कहना है कि अगर ऑटोएंटीबॉडी लंबे समय तक बने रहें तो इससे कोरोना वायरस के सर्वाइवर्स को दीर्घस्थायी और जीवनकाल तक के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।