किसी नई बीमारी या संक्रमण को फैलने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका है उस व्यक्ति की पहचान करना जिसमें सबसे पहले यह मामला देखने को मिला। उस व्यक्ति के आधार पर उससे संपर्क में आए अन्य लोगों की भी शीघ्रता से पहचान करना जरूरी हो जाता है। कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के माध्यम से जितनी जल्दी संपर्क में आए अन्य लोगों की पहचान हो जाएगी, दूसरे लोगों में बीमारी फैलने का खतरा उतना ही कम होगा।
क्लोज कॉन्टैक्ट को ऐसे समझा जा सकता है- ऐसे व्यक्ति जिसमें संक्रमण के लक्षण हों या फिर उसे संक्रमण होने के 4 दिन पहले भी उसके 1 मीटर के दायरे में जो लोग आते हैं उनमें भी संक्रमण का खतरा हो सकता है। क्लोज कॉन्टैक्ट का मतलब यह नहीं कि आप संक्रमित व्यक्ति से शारीरिक संपर्क में आए हों, एक मीटर के दायरे में आने पर भी आप संदिग्ध हैं। क्लोज कॉन्टैक्ट में परिवार के लोग, पड़ोसी, सहकर्मी, शिक्षक, सहपाठी या उसके सामाजिक दायरे में आने वाला कोई भी व्यक्ति हो सकता है।
संक्रमण के शुरुआती मामले मिलने के कई कारण हो सकते हैं। जैसे हो सकता है कि संक्रमित व्यक्ति पिछले 14 दिनों के भतीर किसी ऐसे देश से लौटा हो जहां संक्रमण के मामले पहले से ही जोरों पर हों। जब कोई व्यक्ति प्राथमिक संक्रमण के शिकार व्यक्ति के संपर्क में आने के एक दिन के भीतर ही जांच में पॉजिटिव पाया जाता है या फिर उसमें लक्षण दिखने लगते हैं ऐसे व्यक्ति को सेकेंडरी मामले के रूप में जाना जाता है।
यदि कोई भी व्यक्ति ऐसे देश या शहर की यात्रा करके आ रहा हो जहां पर वायरस का संक्रमण पहले से हो, भले ही उसमें लक्षण दिखें या नहीं, ऐसे व्यक्तियों को संदिग्ध मरीजों की सूची में रखा जाता है। संदिग्ध मरीजों की सूची इसलिए तैयार की जाती है ताकि बाद में उन्हें ट्रेस करना आसान हो।
परीक्षण के दौरान जिन लोगों में जांच के परिणाम पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें कंफर्म और जिनमें अपूर्ण परिणाम आते हैं, यानि मामलों की पुष्टि नहीं हो पाती है उन्हे संभावित मामलों की श्रेणी में रखा जाता है।
संदिग्ध और पुष्टि के मामलों का पता लगाने के लिए पहले ही दिन प्राइमरी या सबसे पहले संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए हुए लोगों के श्वसन के नमूने और खून की जांच की जाती है। इसके बाद 14 से 21 दिनों के बीच दूसरा टेस्ट किया जाता है। इस अवधि के दौरान उस व्यक्ति पर विशेष निगरानी रखी जाती है। इस दौरान अगर किसी व्यक्ति में संक्रमण के लक्षण दिखते हैं तो उसे कंफर्म मामलों की सूची में डाल दिया जाता है। जांच के दौरान संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए सभी लोगों के नाम की गोपनीयता को बनाए रखना होता है।
सबसे पहले संक्रमित हुए और उसके संपर्क में आए लोगों को ट्रेस करना
- अन्य लोगों में बीमारी का संक्रमण तो नहीं फैला यह जानने में मदद मिलती है।
- इससे बीमारी के शुरू होने का समय (incubation period) का पता लगाने में मदद मिलती है। इन्क्यूबेशन पीरियड, वायरस के संपर्क में आने के बाद से व्यक्ति में लक्षण दिखने के बीच का वक्त होता है।
- बीमारी का संचरण किस तरीके से हो रहा है यह जानने में भी मदद मिलती है।
- सेकेंड्री मामले कितने हैं या किस तेजी से बढ़ रहे हैं, इस बारे में भी पता चलता है।
- रोग की प्रजनन क्षमता जानने में मदद मिलता है। इसका अर्थ है कि संक्रमित व्यक्ति अन्य कितने लोगों को संक्रमित कर सकता है। दो संक्रमणों के बीच की अवधि के बारे में भी पता चलता है।
- बीमारी की गंभीरता के अनुपात की जांच करने में मदद मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि कितने मामले बहुत गंभीर हैं और कितने में खतरा कम है?
बाहर से आए मामलों की पहचान करने के लिए, नैशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल ने उन लोगों से स्वत: एक फॉर्म भरने की अपील की है जिनमें कोविड-19 के लक्षण दिख रहे हैं या जिन्हें संक्रमण का खतरा है। फॉर्म में व्यक्ति की सभी व्यक्तिगत जानकारी जैसे नाम, पता, फोन नंबर, उम्र और लिंग शामिल हैं। फॉर्म में उस व्यक्ति की पिछली बीमारियों, संक्रमित क्षेत्रों में यात्रा की सूची, किस-किस के संपर्क में वह व्यक्ति आया है, इस तरह की जानकारियां भी मांगी जाती हैं।
उपरोक्त अध्ययनों से निम्न लिखित निष्कर्ष निकलते हैं
- प्राथमिक मामले और उनके निकट संपर्क में आए लोगों की संख्या।
- संपर्क में आए लोगों में कितने मामलों में लक्षण दिख रहे हैं, कितनों में नहीं दिख रहे, कितने संदिग्ध हैं और कितने मामलों की लैब में पुष्टि हो चुकी है, यह पता चलता है।
- संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए कितने लोगों के शरीर ने वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बना ली है।
सभी निष्कर्षों का उम्र, लिंग, समय और स्थान के हिसाब से अध्ययन किया जाता है।