कोरोना वायरस संकट के चलते देशभर में लागू लॉकडाउन के कई नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। लेकिन पर्यावरण के लिहाज से इसके सकारात्मक पहलू भी सामने आए हैं। कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि कैसे लॉकडाउन के दौरान देश के दर्जनों शहरों का प्रदूषण कम हो गया है। अब अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इस समय भारत में प्रदूषण का स्तर पिछले दो दशकों के न्यूनतम स्तर पर है।
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खबर के मुताबिक, नासा के लेटेस्ट सैटेलाइट डेटा से पता चला है कि उत्तर भारत में वायु प्रदूषण 20 साल में सबसे निचले स्तर पर आ गया है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी ने अपने सैटलाइट की मदद से वातावरण में मौजूद ठोस और तरल कणों की मौजूदगी का पता लगाया। इसे 'एयरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ' (एओडी) कहते हैं। इसके तहत जो आंकड़े इकट्ठे किए गए, उनकी साल 2016 से 2019 के बीच खींची गई तस्वीरों और आंकड़ों से तुलना की गई। साथ ही वर्तमान स्थिति का आंकलन किया गया। इसके बाद यह पता चला है कि देश में और विशेषकर उत्तर भारत में वायु प्रदूषण कई सालों के बाद इतना कम हुआ है।
रिपोर्टों में बताया गया है कि दरअसल लॉकडाउन के कारण देश में व्यापक रूप से कारखानों, उद्योगों और तमाम फैक्ट्रियों की गतिविधियों में काफी ज्यादा कमी आई है। इसका असर यातायात पर भी पड़ा है। कार, बस, ट्रक और हवाई जहाज जैसे यातायात के अधिकांश साधन बंद हैं। नासा के मुताबिक इसका सीधा असर वायु प्रदूषण के स्तर पर पड़ा है। इन गतिविधियों के चलते केवल एक सप्ताह के बाद एयरोसोल (हवा में मौजूद कण) 20 साल के निचले स्तर पर आ गया है। रिपोर्ट के मुताबिक हर साल, एंथ्रोपोजेनिक (मानव निर्मित) स्रोतों से एयरोसोल कई भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण को बढ़ाने का काम करता है, जिससे स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याओं को बढ़ावा मिलता है।
इस बदलाव को लेकर नासा के 'मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर' में यूनिवर्सिटी स्पेस रिसर्च एसोसिएशन (यूएसआरए) के वैज्ञानिक पवन गुप्ता ने कहा, ‘हमें पता था कि लॉकडाउन के दौरान हमें कई जगहों पर वायुमंडलीय संरचना में बदलाव दिखाई देंगे। लेकिन मैंने साल के इस समय में उत्तर भारत में एयरोसोल के कणों में इतना कम अंतर कभी नहीं देखा।‘
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हमें किस तरह प्रभावित करते हैं एयरोसोल?
जैसा कि ऊपर बताया गया कि एयरोसोल हवा में मौजूद छोटे ठोस और तरल कण होते हैं, जो विजिबिलिटी को कम करने का काम करते हैं। वातावरण में इनकी मौजूदगी के वक्त खुले में सांस लेने से ये कण शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और फेफड़ों के साथ हृदय को नुकसान पहुंचा सकते हैं। कुछ एयरोसोल में प्राकृतिक स्रोत होते हैं, जैसे तूफान से उड़ने वाली धूल, ज्वालामुखी विस्फोट और जंगल की आग के बाद हवा में उड़ने वाले कण। लेकिन बाकी एयरोसोल मानवीय गतिविधियों के चलते पैदा होते हैं, जैसे कि खनिज पदार्थ और क्रॉपलैंड्स (पराली) को जलाने पर हवा में फैलने वाले कण। प्राकृतिक सोत्रों के मुकाबले मानव निर्मित एयरोसोल अधिकांश छोटे कणों का योगदान करते हैं, जिनसे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने की ज्यादा आशंका होती है।