अमेरिका के गैर-लाभकारी स्वास्थ्य संगठन विस्टर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों को एचआईवी के खिलाफ संभवतः बड़ी कामयाबी हाथ लग गई है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इन वैज्ञानिकों ने शरीर की उन जगहों को खोज निकालने का नया तरीका ढूंढ निकाला है, जिनमें एचआईवी वायरस एंटीरेट्र्रोवायरल थेरेपी के दौरान जाकर छिप जाता है। दावा है कि विस्टर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने एचआईवी वायरस के छिपने की जगहों का पता लगाने के लिए जो तरीका खोजा है, उसी के माध्यम से वायरस को एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) के तहत टार्गेट किया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण खोज से जुड़ी अध्ययन रिपोर्ट जानी-मानी मेडिकल पत्रिका सेल रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुई है। इसके परिणाम एचआईवी पॉजिटिव लोगों के दीर्घकालिक इलाज के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
एआरटी से एचआईवी संक्रमित लोगों का जीवनकाल नाटकीय ढंग से बढ़ाने में मदद मिली है। इस थेरेपी से वायरस मुख्य कोशिकाओं में अपनी कॉपियां नहीं बना पाता और उसका विकास भी रुक जाता है। उसकी संख्या इतनी कम हो जाती है कि वह पीड़ित के लिए जानलेवा नहीं रह जाता। लेकिन, इसके बाद भी कम मात्रा में यह वायरस खून और ऊतकों में मौजूद रहता है। शरीर में उसका बना रहना इम्यून रिकवरी को सीमित कर देता है और सूजन के स्थायी रूप से बने रहने में इसकी भूमिका मानी जाती है। परिणामस्वरूप, एचआईवी संक्रमित व्यक्ति में कई बीमारियों के विकसित होने का खतरा बना रहता है। एआरटी के बावजूद शरीर में एचआईवी के बने रहने का संबंध सीडी4 नामक टी सेल्स से जुड़ा है। वायरस बॉडी में छिपे रहने के लिए इन दुर्लभ कोशिकाओं का इस्तेमाल करता है। ऐसे में वायरस के छिपने की जगहों का पता देने वाले बायोमार्कर की खोज कर लेना एक महत्वपूर्ण कामयाबी माना जा रहा है।
इस बारे में बात करते हुए विस्टर इंस्टीट्यूट के पीएचडी असिस्टेंट प्रोफेसर और अध्ययन के लेखक मोहम्मद अब्दुल-मोहसिन ने कहा, 'ग्लाइकोबायोलॉजी और ग्लाइकोइम्यूनोलॉजी में हाल के समय में जो तरक्की हुई है, उससे यह साफ हुआ है कि इम्यून सेल्स की सतह पर मौजूद शुगर मॉलिक्यूल्स की इन सेल्स के संचालन और निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका है। हालांकि एचआईवी के बने रहने में होस्ट सेल की सतह पर ग्लाइकोसाइलेशन (एक प्रकार की प्रतिक्रिया) की भूमिका के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। इससे एचआईवी को समझना मुश्किल था। लेकिन यह पहली बार है जब हमने कोशिका की सतह पर मौजूद एक ऐसे ग्लाइकोमिक संकेतक की व्याख्या की है, जिसकी मदद से एचआईवी के बने रहने की क्षमता को प्रभावित किया जा सकता है।'
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शरीर में बने रहने वाली संक्रमित कोशिकाओं को दो समूह में विभाजित किया जा सकता है। एक सेल वे होती हैं, जो पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं और आरएनए (यानी साइलेंट एचआईवी रिजर्वर) का विकास नहीं करतीं। दूसरी सेल्स वे होती हैं जो कम स्तर पर आरएनए प्रोड्यूस करती हैं। वैज्ञानिकों का फोकस इन दोनों रिजर्वर सेल्स या कोशीय सेल्स को टार्गेट कर खत्म करना है ताकि एचआईवी का इलाज किया जा सके। इस दिशा में एक बड़ी चुनौती यह है कि शोधकर्ताओं को यह पूरी जानकारी नहीं है कि आखिर ये दोनों संक्रमित कोशिकाएं एक-दूसरे और असंक्रमित कोशिकाओं से किस तरह अलग हैं। लिहाजा इनके बीच अंतर स्पष्ट करने वाले बायोमार्कर्स का पता लगना एक महत्वपूर्ण कामयाबी है।