आयुर्वेद में मिर्गी को अपस्मार कहा जाता है। ये एक तंत्रिका तंत्र से संबंधी विकार है जिसमें दौरे पड़ना, मुंह से झाग आना, आंखों के सामने अंधरो छा जाना, कुछ समय के लिए याददाश्त खो जाना और मानसिक क्षमता में कमी हो जाती है। त्रिदोष के खराब होने के कारण मिर्गी की समस्या उत्पन्न होती है जिसमें वात प्रमुख कारक है।
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शीघ्र निदान से मरीज की स्थिति के अनुसार सही उपचार का चयन किया जा सकता है। प्रमुख पंचकर्म थेरेपी में से स्नेहन (तेल लगाने की विधि) के पूर्व कर्म और स्वेदन (पसीना निकालने की विधि) कर्म दिया जाता है जिसमें वमन (औषधियों से उल्टी करवाने की विधि), बस्ती (एनिमा), नास्य (नाक से दवा डालना) और विरेचन शामिल है। ये खराब दोष को साफ कर शरीर को आगे के उपचार एवं औषधि के लिए तैयार करता है।
मेध्य रसायन (मस्तिष्क के लिए शक्तिवर्द्धक और ऊर्जादायक) गुणों से युक्त जड़ी बूटियां मिर्गी का इलाज करने में बहुत मददगार साबित होती हैं। मिर्गी के इलाज में इस्तेमाल होने वाली जड़ी बूटियों में ब्राह्मी, अश्वगंधा, शतावरी, जटामांसी और शंखपुष्पी का नाम शामिल है।
इन सभी जड़ी बूटियों से बने मिश्रण मिर्गी की स्थिति को नियंत्रित करने में बहुत असरकारी होते हैं। मिर्गी की स्थिति में सही समय पर निदान, नियमित उपचार और आयुर्वेदिक चिकित्सक से नियमित परामर्श लेना बेहतर रहता है। मिर्गी के लिए अधिकतर आयुर्वेदिक उपचार चिकित्सकीय रूप से सुरक्षित और असरकारी साबित हुए हैं।