रीढ़ की हड्डी की जिस जगह की वर्टिब्रा और डिस्क क्षतिग्रस्त होती है, उसके आसपास 2 से 4 से.मी का चीरा लगाया जाता है। अब प्रभावित हिस्से में ऊतकों और मांसपेशियों को साइड करके स्पाइन की हड्डियों तक पहुंचा जाता है। अब क्षतिग्रस्त वर्टिब्रा और इसके नीचे एवं ऊपर की डिस्क को निकाला जाता है। इस प्रक्रिया को डिकंप्रेशन कहते हैं, जिससे रीढ़ की हड्डी और नसों पर पड़ रहे दबाव से राहत मिलती है।
अब रीढ़ की हड्डी को संतुलित करने के लिए सर्जन स्पाइनल फ्यूजन (दो या इससे ज्यादा वर्टिब्रा को एक साथ जोड़ना) करते हैं। डिस्क और वर्टिब्रा को निकालने के बाद जो जगह खाली रह गई है, उस जगह को भरा जाता है। इसे इंप्लांट कहते हैं। इससे रीढ़ की हड्डी को मजबूती और संतुलन मिलता है।
स्ट्रट ग्राफ्ट एक प्रकार का इंप्लांट हैं। ये 1 से 2 इंच लंबा हड्डी का एक टुकड़ा होता है। इसे मरीज के ही शरीर से या फिर बोन बैंक से लिया जा सकता है। रीढ़ की हड्डी के बीच जो खाली जगह रह जाती है, वहां पर टाइटेनियम स्क्रू और प्लेट्स की मदद से स्ट्रट ग्राफ्ट को लगाया जाता है। आमतौर पर ये ग्राफ्ट की गई हड्डी रीढ़ की हड्डी के साथ ही मिल जाती है।
केज, अन्य प्रकार का इंप्लांट है। केज पूरी तरह से टाइटेनियम, सिरेमिक या मानव निर्मित हड्डी से बना होता है। रीढ़ की हड्डी के बीच जो खाली जगह रह जाती है, वहां पर टाइटेनियम स्क्रू और प्लेट्स की मदद से केज को लगाया जाता है। रीढ़ की हड्डी और केज को मिलाने के लिए एक छोटी हड्डी को ग्राफ्ट किया जाता है। इसमें जिस हड्डी का इस्तेमाल किया जाता है, उसे निकाली गई वटिब्रा से तैयार किया गया होता है।
अब चीरे को टांके से बंद कर के पट्टी कर दी जाती है।