अगर आपके पूर्वज अपनी डेली डाइट में मछली, अंडा और मांस जैसी चीजों का सेवन करते थे लेकिन आपके रोजाना के भोजन में ज्यादातर कार्बोहाइड्रेट्स वाली चीजें शामिल हैं तो आपको मोटापा, डायबिटीज और हृदय रोग जैसी समस्याएं होने का खतरा हो सकता है। शोधकर्ता इसे "बेमेल परिकल्पना (मिसमैच हाइपोथीसिस)" कहते हैं- यह आपकी डाइट और किस तरह से आपका शरीर विकसित हुआ है चीजों को पचाने और प्रोसेस करने के लिए के बीच एक तरह का बेमेल संबंध है। 

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बेमेल परिकल्पना को साबित करने का सटीक उदाहरण हैं तुर्काना लोग
लुईस-सिगलर इंस्टिट्यूट फॉर इंटिग्रेटिव जिनोमिक्स (LSI), प्रिंसटन यूनिवर्सिटी और एमपाला एनएसएफ जिनोमिक्स और स्टेबल आइसोटोप्स लैब केन्या के शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने इस बेमेल परिकल्पना को साबित करने के लिए एक बिलकुल सटीक उदाहरण खोज लिया है: उत्तर पश्चिमी केन्या के रेगिस्तान में रहने वाले तुर्काना लोग। 

40 साल पहले, केन्या के इस रेगिस्तान वाले इलाके में जबरदस्त सूखा पड़ा जिसने तुर्काना खानाबदोशों के एक उप-समूह को वहां से हटकर गांवों और शहरों में बसने के लिए मजबूर कर दिया जबकि कई अन्य लोगों ने अपने पुराने खानाबदोश तरीकों के साथ ही रहना जारी रखा- जैसे ऊंट, ज़ेबू मवेशी, भेड़, बकरियां और गधों का पालन पोषण करना और अपनी 80 प्रतिशत से ज्यादा ऊर्जा केवल पशु उत्पादों से प्राप्त करना।

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गांव-शहर में रहने वालों ने पशु उत्पाद की जगह कार्ब्स का अधिक सेवन शुरू किया 
तुर्काना के जो लोग गांवों और शहरों में आकर बस गए, उनके आहार में "अचानक और बड़े पैमाने पर" बदलाव देखने को मिला क्योंकि इन लोगों ने अब पशु उत्पादों की जगह अधिक कार्ब्स और प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों का सेवन करना शुरू कर दिया था। 

शोधकर्ताओं ने 44 स्थानों पर 1 हजार 226 तुर्काना वयस्कों का साक्षात्कार लिया और पाया कि जो लोग शहर में आकर बस गए थे- और प्रोटीन और वसा से भरपूर आहार से दूर हो गए थे और अब ज्यादातर कार्बोहाइड्रेट पर आधारित आहार का सेवन कर रहे थे- उनमें हृदय से जुड़ी समस्याएं, मोटापा और डायबिटीज जैसी मेटाबॉलिक समस्याओं की अधिक शिकायते थीं। इसके अलावा, ये लोग जितने लंबे समय तक किसी शहर या गांव में रहे, उनकी कार्डियो-मेटाबोलिक सेहत भी उतनी ही खराब रही। 

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यह अध्ययन महत्वपूर्ण क्यों है?
इस स्टडी को अहमियत देने के कई कारण हैं। पहला तो ये कि- इसमें एक जैसे लोगों की ही तुलना की गई है: अलग-अलग जाति वाले लोगों की एक दूसरे से तुलना करने की बजाए इसमें तुर्काना लोगों की तुलना तुर्काना लोगों के साथ ही की गई है। (हम जानते हैं कि जाति या नस्ल, लंबे समय तक रहने वाली क्रॉनिक बीमारियों के विकास में बड़ी भूमिका निभाती है; उदाहरण के लिए, एशियाई और अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों में हृदय रोग का उच्च जोखिम होता है श्वेत नस्ल वाले लोगों की तुलना में)।

LSI में असिस्टेंट प्रोफेसर और इस अध्ययन के सीनियर शोधकर्ता जूलियन ऐरोल्स ने कहा कि 1980 में तुर्काना जाति के लोगों द्वारा खानाबदोश की जिंदगी छोड़कर गांवों और शहरों की तरफ आने की गतिविधि ने "एक अभूतपूर्व अवसर पेश किया: आनुवांशिक रूप से एक समान आबादी, जिनका आहार जीवनशैली के उतार-चढ़ाव की वजह से काफी फैला हुआ था जो तुलनात्मक रूप से एकसमान (जानवरों के उत्पादों पर आधारित) से लेकर पूरी तरह से बेमेल (कार्बोहाइड्रेट्स से भरपूर) था उनके हालिया विकासवादी इतिहास के साथ।"

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आहार में परिवर्तन सेहत को कैसे प्रभावित करता है?
दूसरा ये कि- 40 साल पहले दो समूहों के बीच स्पष्ट अंतराल ने वैज्ञानिकों को यह देखने में मदद की कि आहार में परिवर्तन सेहत को कैसे प्रभावित करता है- सामान्य तौर पर, यह परिवर्तन विभिन्न सेटिंग्स, समुदायों और देशों में अधिक बिखरे हुए तरीके से देखने को मिलता है। यह सुनिश्चित करने के लिए अन्य कारक भी हैं जिनपर विचार किया जाना चाहिए- खराब स्वास्थ्य के अन्य मुमकिन कारण भी हैं लोगों के उस समूह के लिए जो गांवों और शहरों में आकर बस गए। उदाहरण के लिए, खानाबदोश जीवन में अधिक व्यायाम और वायु प्रदूषण का कम जोखिम शामिल था।

लेकिन शोधकर्ता इस बात को लेकर स्पष्ट थे उनके निष्कर्षों से यह संकेत मिलता है: "हमें कमोबेश वही नतीजे मिल रहे हैं जिसकी हमें उम्मीद थी... इस कार्बोहाइड्रेट युक्त आहार में परिवर्तित होना ही लोगों को बीमार बना रहा है," जूलियन एरोल्स ने कहा। 

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साइंस अडवांसेज नाम की पत्रिका में 21 अक्टूबर को शोधकर्ताओं की इस स्टडी के नतीजों को प्रकाशित किया गया जिसका शीर्षक था- "शहरीकरण और बाजार एकीकरण का तुर्काना के लोगों के कार्डियोमेटाबोलिक स्वास्थ्य पर अपंकितबद्ध प्रभाव।" प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के डीन फॉर रिसर्च इनोवेशन फंड्स और एमपाला फंड्स ने कई और लोगों के साथ मिलकर इस रिसर्च प्रॉजेक्ट और शोधकर्ताओं का समर्थन किया।

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