माइलोडिस्प्लास्टिक सिंड्रोम (एमडीएस) की समस्या को डोनर स्टेम सेल ट्रांसप्लांट से ठीक करने में मदद मिल सकती है। अध्ययन के तहत किए गए नए ट्रायलों में यह बात फिर साबित होने का दावा किया गया है। अमेरिका स्थित डाना-फार्बर कैंसर इंस्टीट्यूट (डीएफसीआई) के शोधकर्ताओं ने क्लिनिकल ट्रायल करने के बाद हाल में संपन्न हुई 62वीं वार्षिक अमेरिकन सोसायटी ऑफ हीमाटोलॉजी की बैठक में यह जानकारी दी है। गौरतलब है कि एमडीएस बुजुर्गों को विशेष रूप से प्रभावित करता है। नए क्लिनिकल ट्रायलों में परिणाम ऐसे लोगों की मदद कर सकते हैं। इससे पहले ट्रांसप्लांट ऑपरेशन को इस बीमारी से पीड़ित बुजुर्गों के लिए फायदेमंद नहीं माना जाता रहा है।
गौरतलब है कि मौजूदा समय में ट्रांसप्लांट को एमडीएस का एकमात्र इलाज माना जाता है। लेकिन इसके अधिकतर लाभकारी मरीज युवा होते हैं। बुजुर्गों के लिए यह उपचार फायदेमंद नहीं माना जाता है। बताया जाता है कि इसके समर्थन में प्रमाण नहीं मिलते हैं। लेकिन ब्लड एंड मैरो ट्रांसप्लांट क्लिनिकल ट्रायल नेटवर्क के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए नए परीक्षण इस रुख में बदलावर कर सकते हैं, जो कहते हैं कि बुजुर्ग एमडीएस पीड़ितों के लिए भी डोनर स्टेम सेल ट्रांसप्लांट फायदेमंद हो सकते हैं और ल्यूकेमिया हुए बिना उनका सर्वाइवल रेट बढ़ सकता है।
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इन वैज्ञानिकों ने अमेरिका में एमडीएस के 384 मरीजों को अध्ययन में शामिल किया था। इसमें उन्होंने जाना कि उचित डोनर से हीमोटोपोएटिक (रक्तोत्पादक) स्टेम सेल्स लेकर उन्हें ट्रांसप्लांट करने से ज्यादा उम्र के एमडीएस मरीजों का सर्वाइवल रेट लगभग दोगुना किया जा सकता है। अध्ययन में शामिल 50 से 75 वर्ष की उम्र के प्रतिभागियों में शोधकर्ताओं ने पाया है कि कैसे इस प्रकार की कोशिकाओं का ट्रांसप्लांट करने पर उनके जीवित रहने की संभावना लगभग दोगुनी हो गई थी।
इस सफलता पर क्लिनिकल ट्रायल के अध्ययन से जुड़े एक वरिष्ठ लेखक और डीएफसीआई में प्रोफेसर कोरे कटलर ने कहा है, 'इस आयुवर्ग (बुजुर्ग) के मरीजों के लिए ट्रांसप्लांटेशन का इस्तेमाल काफी कम होता रहा है। हमारे अध्ययन परिणामों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभी मरीजों को ट्रांसप्लांट सेंटर भेजने के लिए कम से कम रेफर तो किया जाना चाहिए ताकि जिन मरीजों के पास या लिए योग्य और उपयुक्त डोनर उपलब्ध हो, उनका ट्रांसप्लांट किया जा सके और सर्वाइवल बेहतर किया जा सके।'
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क्या कहते हैं ट्रायल के परिणाम?
अध्ययन में शामिल एमडीएम के मरीजों को ट्रांसप्लांट सेंटर रेफर किया गया था। वहां इनके लिए उपयुक्त स्टेल सेल डोनर की तलाश की गई थी। कोई 90 दिनों के अंदर 260 मरीजों के सैंपल किसी न किसी डोनर से मैच कर गए थे, जिसके बाद उनके स्टेम सेल ट्रांसप्लांट करने का फैसला किया गया। बाकी 124 मरीजों का पारंपरिक तरीके से इलाज चला। करीब तीन साल के फॉलोअप के बाद पता चला कि जिन लोगों के ट्रांसप्लांट किए गए थे, उनमें से 47.9 प्रतिशत इतने समय बाद भी जीवित थे, जबकि स्टैंडर्ड सपोर्टिव केयर के तहत उपचार प्राप्त करने वालों या जिनके लिए मैचिंग डोनर नहीं मिले थे, उनमें केवल 26.6 प्रतिशत लोग ही जीवित बचे थे। इसके अलावा, ट्रांसप्लांट वाले मरीजों में ल्यूकेमिया की समस्या फिर से पैदा हुए बिना जीवित रहने की संभावना 35.8 प्रतिशत ज्यादा थी। दूसरे समूह में यह संभावना 20.6 प्रतिशत पाई गई।
क्या है एमडीएस?
माइलोडिस्प्लास्टिक सिंड्रोम यानी एमडीएस खराब रक्त कोशिकाओं के बनने या उनके ठीक से काम नहीं करने से जुड़ी समस्या है। मेडिकल एक्सपर्ट के मुताबिक, अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में हुई किसी गड़बड़ी के कारण एमडीएस की समस्या पैदा हो सकती है। इससे रक्त कोशिकाएं असंतुलित हो जाती हैं, जिससे एमडीएस की समस्या देखने को मिलती है। दूसरे शब्दों में कहें तो एमडीएस असल में अलग-अलग विकारों का एक समूह है, जिसमें बोन मैरो की रक्त बनाने वाली कोशिकाएं असामान्य हो जाती हैं। परिणामस्वरूप, प्रभावित व्यक्ति में डिफेक्टिव ब्लड सेल्स बनने लगती हैं। एमडीएस से पीड़ित हर तीन मरीजों में से एक में यह समस्या इतनी बढ़ सकती है कि वह गंभीर ब्लड कैंसर का शिकार हो सकता है, जो बोन मैरो सेल्स से जुड़ा तेजी से बढ़ने वाला कैंसर माना जाता है। इसी के चलते कई जानकारी एमडीएस के सिए सीधा कैंसर शब्द का भी इस्तेमाल करते हैं।