कोविड-19 महामारी को लेकर अब तक वैज्ञानिक कई रिसर्च कर चुके हैं। कई अध्ययनों में यह कहा गया कि कोरोना वायरस संक्रमण युवाओं की तुलना में बुजुर्गों के लिए ज्यादा घातक है। लेकिन देखा जाए तो ऐसे कई मामले सामने आए जहां युवाओं को भी कोविड-19 से जुड़ी गंभीर जटिलताओं का सामना करना पड़ा और इसकी एक वजह है इंटरफेरॉन। हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया कि वायरस से शरीर की सुरक्षा करने वाला मॉलिक्यूलर मेसेंजर टाइप-1 इंटरफेरॉन कोविड-19 के कुछ गंभीर मामलों में शरीर से गायब पाया गया जिसे लेकर शोधकर्ता हैरान हैं।

वायरल रोगजनकों के खिलाफ रक्षा करता है इंटरफेरॉन
स्वास्थ्य के क्षेत्र से जुड़ी पत्रिका साइंस में ऑनलाइन प्रकाशित दो पेपर में वैज्ञानिकों ने इस संदेह की पुष्टि की है। वे बताते हैं कि गंभीर कोविड-19 रोगियों में एक महत्वपूर्ण संख्या में इंटरफेरॉन गायब मिला है जो वायरल रोगजनकों के खिलाफ शरीर की रक्षा करने में मदद करता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इंटरफेरॉन प्रतिक्रिया को आनुवंशिक दोष या खराब एंटीबॉडी ने असर्मथ या बेअसर बना दिया है। इसके बाद इंटरफेरॉन खुद पर हमला करते हैं।

स्वीडन के कैरोलिंस्का संस्थान के एक इम्यूनोलॉजिस्ट काइल पैन-हैमरस्ट्रॉम का कहना है “एक साथ इन दो स्टडी में ऐसे लगभग 14 प्रतिशत गंभीर कोविड-19 मामलों के बारे में बताया गया है जो कि काफी आश्चर्यजनक है।”

(और पढ़ें- कोविड-19: हर्ड इम्यूनिटी से अभी बहुत दूर है भारत- हर्षवर्धन)

तदातसुगु तानिगुची, एक अग्रणी इंटरफेरॉन वैज्ञानिक और टोक्यो यूनिवर्सिटी के अवकाश प्राप्त प्रफेसर इस रिसर्च को "उल्लेखनीय" बताते हैं। वह कहते हैं कि सार्स-सीओवी-2 संक्रमण और संभवतः जानलेवा कोविड-19 बीमारी के विकास में टाइप-1 इंटरफेरॉन की जो "क्रिटिकल या जोखिम भरी" भूमिका है उसके बारे में इस स्टडी में उजागर किया गया है।

वहीं बेलिज्यम में यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल ल्यूवन में पीडियाट्रिक इम्यूनोलॉजिस्ट और इस स्टडी की सह लेखक इसाबेल मेट्स इनमें से एक पेपर के नतीजों से बेहद खुश थीं जिसमें यह बताया गया कि 10% गंभीर रूप से बीमार कोविड-19 रोगियों में यही खराब या बदमाश एंटीबॉडीज बीमारी की नींव रखते हैं। वे कहती हैं “मानव शरीर में एक फैक्टर के कारण इस स्तर पर कभी भी किसी संक्रामक रोग को समझाया नहीं गया है और यह यूरोप के लोगों का एक अलग समूह नहीं है बल्कि दुनिया भर में सभी जाति से संबंधित मरीजों के लिए सही है।”

अधिकांश पुरुष मरीज के एंटीबॉडी इंटरफेरॉन पर करते हैं हमला
स्टडी का एक और नतीजा यह भी रहा कि जिन लोगों के शरीर में इंटरफेरॉन पर हमला करने वाले एंटीबॉडीज पाए गए उनमें से 94% पुरुष थे, जिस कारण यह समझने में मदद मिलती है कि पुरुषों को कोविड-19 की गंभीर बीमारी का अधिक खतरा क्यों है।

दोनों अध्ययनों को एक साथ जोड़कर देखें तो वास्तिवक रूप से उलझाने वाली स्थिति दिखाई पड़ती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिऐगो में इंटरफेरॉन की अध्ययनकर्ता और इम्यूनोलॉजिस्ट एलिना ज़ुनिगा कहती हैं, सिंथेटिक इंटरफेरॉन जो लंबे समय से अन्य बीमारियों का इलाज करने में इस्तेमाल हो रहे हैं वे जोखिम वाले कुछ रोगियों की मदद कर सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हानिकारक एंटीबॉडी को हटाने के लिए अन्य थेरेपीज का इस्तेमाल किया जाता है। एक सामान्य प्रकार का एंटीबॉडी परीक्षण आसानी से विकसित किया जा सकता है और कुछ ही घंटों में नतीजे भी दे सकता है। वे कहती हैं “जिन लोगों में कोविड-19 का अधिक खतरा है उन्हें एक्सपोजर से बचना चाहिए और टीकाकरण के लिए उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”

स्टडी के नतीजों में रिकवर हो चुके मरीजों से प्लाज्मा डोनेशन को लेकर भी कुछ शंकाएं व्यक्त की गई हैं। यह वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी से समृद्ध हो सकता है और संक्रमण से लड़ने के लिए पहले से ही कुछ रोगियों को "कॉन्वलसेंट प्लाज्मा" दिया जाता है। लेकिन दान किए गए कुछ प्लाज्मा में इंटरफेरॉन को बेअसर करने वाले एंटीबॉडीज भी मौजूद हो सकते हैं। प्लाज्मा दान के लिए तैयार किए गए पूल में से ऐसे मरीजों को हटाया जाना जरूरी है क्योंकि आप निश्चित रूप से ऐसा नहीं चाहेंगे कि ये ऑटोएंटीबॉडी किसी दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित हो जाएं।"

(और पढ़ें- कोविड-19: एन95 मास्क को रीयूजेबल बनाना संभव, वैज्ञानिकों ने गर्मी और नमी का इस्तेमाल कर किया साबित)

शरीर की कैसे सुरक्षा करता है टाइप-1 इंटरफेरॉन ?
टाइप-1 इंटरफेरॉन शरीर में हर कोशिका द्वारा बनाए जाते हैं और संक्रमण के शुरुआती चरण में होने वाली इस एंटीवायरल लड़ाई में अहम नेतृत्व निभाते हैं। जब कोई वायरस कोशिका पर हमला करता है, तो ये इंटरफेरॉन्स त्वरित और बेहद तेज स्थानीय प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं और संक्रमित कोशिका को प्रोटीन का उत्पादन करने के लिए उत्तेजित करते हैं ताकि वह वायरस पर हमला कर सके। इसके साथ इंटरफेरॉन प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भी हमले वाली जगह पर बुलाते हैं और अपने बचाव की तैयारी करने के लिए आसपास मौजूद असंक्रमित कोशिकाओं को सचेत करते हैं।

क्यों नहीं रुक सका कोरोना का अटैक
एक अध्ययन में रॉकफेलर विश्वविद्यालय में संक्रामक रोग आनुवंशिकीविद् जीन-लॉरेंट कैसानोवा और उनकी टीम ने दुनिया भर के 987 गंभीर रूप से बीमार रोगियों के खून के सैंपल की जांच की। इस दौरान शोधकर्ताओं ने 10.2% रोगियों में उन एंटीबॉडीज की पहचान की, जिन्होंने मरीजों के खुद के टाइप-1 इंटरफेरॉन पर हमला कर उन्हें बेअसर कर दिया। प्रभावित रोगियों के एक उपसमूह में इस इंटरफेरॉन का ब्लड लेवल बहुत कम या अवांछनीय था। लैब अध्ययनों से यह प्रमाणित हुआ कि एंटीबॉडीज ने इंटरफेरॉन को प्रतिक्रिया करने से रोक दिया। यही वजह रही कि मरीजों के प्लाज्मा के संपर्क में आने वाली कोशिकाएं नए कोरोना वायरस के अटैक को नहीं रोक पाईं।

हालांकि सार्स-सीओवी-2 संक्रमण के कम लक्षण वाले या असिम्प्टोमैटिक 663 लोगों के समूह में से किसी में भी यह हानिकारक एंटीबॉडीज नहीं थी। वहीं, सामान्य आबादी में भी ये एंटीबॉडीज काफी कम थीं। हैरानी की बात है कि 1200 से अधिक स्वस्थ लोगों की जांच से पता चला कि केवल 0.33% लोगों में ही ये इंटरफेरॉन एंटीबॉडी थे। कैसानोवा कहते हैं, "इसका मतलब यह है कि कम से कम 10% क्रिटिकल कोविड-19 के मामले अपने ही इम्यून सिस्टम के खिलाफ एक स्व-प्रतिरक्षित हमला है। हालांकि पुरुष मरीजों में इसकी अधिक मौजूदगी शोधकर्ता के लिए किसी हैरानी से कम नहीं था क्योंकि महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारी की दर अधिक होती है।

रोगियों में आनुवांशिक दोष भी एक वजह

प्रकाशित हुए दूसरे पेपर में रोगियों में आनुवांशिक खामियां पाई गईं, जिसके परिणामस्वरूप वही अंतिम परिणाम निकला- सार्स-सीओवी-2 संक्रमण के लिए एक सुस्त और अपर्याप्त इंटरफेरॉन प्रतिक्रिया। शोधकर्ताओं की टीम ने गंभीर रूप से बीमार कोविड-19 के 659 रोगियों और हल्के या असिम्प्टोमैटिक 534 रोगियों के डीएनए की जांच की। उन्होंने 13 जीन्स की जांच की, क्योंकि उनमें खामियां शरीर के उत्पादन या टाइप 1 इंटरफेरॉन के उपयोग को बाधित करती हैं।

(और पढ़ें- कोविड-19: कोरोना वायरस को कैसे मात दे रहे हैं बच्चे, वैज्ञानिकों ने बताई वजह)

जीन में म्यूटेशन मुख्य जानलेवा इन्फ्लूएंजा या अन्य वायरल बीमारियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि गंभीर रूप से बीमार रोगियों में से 3.5% ऐसे थे जिनके उन 13 में से 8 जीन में दुर्लभ म्यूटेशन देखने को मिला। उन रोगियों में जिनके लिए खून के नमूने उपलब्ध थे, उनमें इंटरफेरॉन का स्तर गायब था। हालांकि हल्के या बिना लक्षण वाले समूह के किसी भी सदस्य में म्यूटेशन से जुड़ा ऐसा कोई बदलाव नहीं मिला। डॉक्टर पैन-हैमरस्ट्रॉम का कहना है, “यह पहली स्टडी है, जिसमें निश्चित रूप से बीमारी पैदा करने वाला म्यूटेशन कोविड-19 बीमारी में गंभीर स्थिति के लिए वजह बना।

हालांकि  हडसन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च के एक इंटरफेरॉन विशेषज्ञ पॉल हर्टजॉग कहते हैं कि ये संभावित रूप से एक बड़ी समस्या की छोटी सी झलक भर है क्योंकि इंटरफेरॉन संबंधित कई अन्य हानिकारक म्यूटेशन है भी और नहीं भी, जो कोविड​​-19 बीमारी में गंभीर स्थिति का कारण बन सकते हैं।

वहीं, ज़ुनिगा ने नोट किया कि इंटरफेरॉन के खिलाफ एंटीबॉडी बनाने वाले या म्यूटेशन्स वाले रोगियों में से कोई भी ऐसा नहीं था जिसे पहले कोई जानलेवा बीमारी हुई हो जिसके लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आय़ी हो। "यह बात बताती है कि हम सार्स-सीओवी-2 बनाम अन्य वायरल संक्रमणों के खिलाफ खुद को बचाने के लिए टाइप 1 इंटरफेरॉन पर अधिक निर्भर हैं, लिहाजा यह महत्वपूर्ण है कि हम टाइप 1 इंटरफेरॉन प्रतिक्रिया को बढ़ाने वाली थेरेपीज को ट्राई करें।"

और पढ़ें ...
ऐप पर पढ़ें