पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित और तिब्बत के जानेमाने कैंसर के 92 वर्षीय डॉ. येशी ढोंडेन ने मेडिकल प्रेक्टिस बंद कर दी है। डॉक्टर ढोंडेन मैक्लॉडगंज के करीब स्थित अपने चिकित्सा केंद्र को बंद करने जा रहे हैं। ढोंडेन का यह निर्णय इलाके के लिए एक बड़ा झटका है क्योंकि दुनियाभर से लोग यहां पर कैंसर का इलाज कराने पहुंचते थे, जिनका यहां की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा योगदान रहा है।
फिलहाल, इस चिकित्सा केंद्र पर एक नोटिस चस्पा कर दिया है, जिसमें लिखा है कि अब डॉ. येशी ढोंडेन वृद्धा अवस्था के कारण यहां मरीजों का इलाज नहीं कर पाएंगे। 1927 में ढोंडेन की उम्र जब 6 साल थी, तब वह एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु भी थे। इसके अलावा वह तिब्बत के धर्म गुरु दलाई लामा के चिकित्सक भी रहे हैं।
कैंसर के मरीजों की संख्या में एक बड़ी गिरावट आने से आमतौर पर लोगों को उनके क्लीनिक में 2-3 महीने के अंतराल में इलाज के लिए अप्वॉइंटमेंट मिल जाती थी। यहां तक कि दिल्ली से धर्मशाला के लिए चलने वाली उड़ानों में भी ढोंडेन के पास इलाज कराने की खातिर आने वाले लोगों की एक बड़ी हिस्सेदारी है।
याददाश कमजोर होने के चलते लिया फैसला
ढोंडेन ने मरीजों का इलाज न करने का फैसला इसलिए किया है क्योंकि उनकी याददाश कमजोर होती जा रही है, जिसके चलते उन्हें लोगों का इलाज करने में समस्याएं आ रही हैं। फिलहाल, उनके चिकित्सा केंद्र में पुराने मरीजों को ही दवाइयां दी जा रही हैं।
दुनियाभर में लोकप्रिय है उनका इलाज
उन्होंने तिब्बत की समृद्ध सांस्कृतिक पारंपरिक प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली को बेहद लोकप्रिय बनाया है, जो भारत और अन्य देशों की प्राचीन चिकित्सा प्रणालियों को आपस में जोड़ती है। डॉ. येशी ढोंडेन के मुताबिक, ‘इलाज करने का यह तरीका सबसे पुराना है। इसकी 60 प्रतिशत विधि भारत जबकि कुछ हिस्सा चीन, मंगोलिया, भूटान इत्यादि से ली गई है। तिब्बत की इस कठिन चिकित्सा प्रणाली में नब्ज देखकर और पेशाब से अंदाजा लगाकर इलाज किया जाता है।’
ढेंडेन बीमारी का इलाज मरीज के बर्ताव और आहार में बदलाव, प्राकृतिक औषधियों और खनिज पदार्थों को मिलाकर बनाई गई दवाइयों से करते हैं। इसके अलावा वह एक्यूपंक्चर, मोक्सिबसन, कपिंग जैसी फिजिकल थेरीपी भी करते हैं। इस चिकित्सा प्रणाली में बौद्धों के आध्यात्मिक अभ्यास, जैसे ध्यान लगाना और प्रार्थना करने पर भी जोर दिया जाता है।
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दलाई लामा के साथ आए थे भारत
ढोंडेन का जन्म 15 मई 1927 में तिब्बत में हुआ था। 6 साल की उम्र में वह बौद्ध भिक्षु बन गए थे। 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने तिब्बत में ल्हासा के छगपोरी मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई की। 1959 में वह दलाई लामा के साथ तिब्बत छोड़कर भारत आ गए। 1969 में उन्होंने धर्मशाला में एक निजि क्लीनिक की शुरुआत की।
राष्ट्रपति कर चुके हैं सम्मानित
जनवरी 2018 में, ढोंडेन को भारत का चौथा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्मश्री पुरस्कार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने चिकित्सा क्षेत्र में उनके तिब्बत की पारंपरिक दवाइयों के जरिए योगदान को लेकर दिया। उनके मुताबिक, ‘सालों पहले नागार्जुन न सिर्फ एक बौद्ध भिक्षु थे बल्कि वह आयुर्वेद के एक अच्छे वैध भी थे, जिन्होंने दूसरी शताब्दी में भारत में प्रवास किया। विश्वभर में आयुर्वेद के विकास में उन्होंने योगदान दिया था। हमने इस चिकित्सा प्रणाली को सुरक्षित रखा है और अभी तक हम इलाज के माध्यम से इस चिकित्सा प्रणाली को सुरक्षित रख रहे हैं।’