टूथपेस्ट, साबुन और डियोड्रेंट जैसी रोजमर्रा की चीजों में पाया जाने वाला एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-माइक्रोबियल एजेंट ट्राइक्लोसैन, हमारे नर्वस सिस्टम पर नकारात्मक असर डाल सकता है। आईआईटी हैदराबाद के शोधकर्ताओं ने यह जानकारी देते हुए बताया कि अगर ट्राइक्लोसैन नाम के इस केमिकल का स्वीकार्य सीमा (पर्मिसिबल लिमिट) में रहकर भी इस्तेमाल किया जाए तब भी यह इंसान के जीवन की गुणवत्ता के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर सकता है।
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उपभोक्ता वस्तुओं की शेल्फ-लाइफ बढ़ाता है ट्राइक्लोसैन
दरअसल, ट्राइक्लोसैन एक ऐसा केमिकल है जिसका इस्तेमाल ढेर सारे उपभोक्ता वस्तुओं में किया जाता है ताकि अनचाहे सूक्ष्म-जीव जो प्रॉडक्ट को खराब कर सकते हैं उनके विकास को रोक कर प्रॉडक्ट की शेल्फ लाइफ (वस्तु के भंडार और उपयोग होने तक की अवधि) को बढ़ाया जा सके। शोधकर्ताओं ने पाया कि वैसे तो भारत में ट्राइक्लोसैन इस्तेमाल करने की स्वीकार्य सीमा 0.3 प्रतिशत है लेकिन अगर इसका इस्तेमाल स्वीकार्य सीमा से 500 गुना कम भी किया जाए तब भी यह इंसान के शरीर पर एक प्रभावकारी न्यूरोटॉक्सिक असर डाल सकता है। इस रिसर्च के नतीजों को हाल ही में यूके की पियर रिव्यूड साइंटिफिक जर्नल केमोस्फियर में प्रकाशित किया गया है।
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इंसान के मोटर फंक्शन्स को प्रभावित करता है ट्राइक्लोसैन
आईआईटी हैदराबाद के डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नोलॉजी में असोसिएट प्रोफेसर अनामिका भार्गव कहती हैं, "किसी व्यक्ति के मोटर फंक्शन्स यानी गतिविधियों से जुड़ी क्रियाएं जैसे- चलना और व्यवहार पर ट्राइक्लोसैन के इस्तेमाल का सीधा असर पड़ता है। यह केमिकल न्यूरॉन्स की संरचना और मस्तिष्क के उस हिस्से की बनावट को प्रभावित करता है जो मोटर स्किल्स को कंट्रोल करते हैं। वैसे तो ज्यादातर प्रॉडक्ट्स में 0.3 प्रतिशत ट्राइक्लोसैन का ही इस्तेमाल होता है लेकिन यह छोटी सी मात्रा भी इंसान की सेहत के लिए बड़ा खतरा पैदा कर सकती है।"
इंसानों से मिलते-जुलते जेब्राफिश के भ्रूण पर किया गया अध्ययन
नर्वस सिस्टम पर ट्राइक्लोसैन का क्या असर होता है इसे जानने के लिए अनुसंधानकर्ताओं की टीम ने जेब्राफिश के भ्रूण पर इसका अध्ययन किया। जेब्राफिश एक ऐसा जानवर है जिसे इंसानों के बराबर माना जाता है। स्टडी से पता चलता है कि अगर ट्राइक्लोसैन की बेहद कम या बारीक मात्रा भी न केवल न्यूरोट्रांसमिशन में शामिल जीन और इंजाइम को प्रभावित कर सकती है, बल्कि यह न्यूरॉन्स को भी नुकसान पहुंचा सकता है। कुल मिलाकर देखें तो यह ट्राइक्लोसैन केमिकल, किसी जीव के मोटर फंक्शन्स को प्रभावित कर सकता है।
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न्यूरो-डीजेनेरेटिव बीमारियां होने का खतरा
इस बारे में आगे और बताते हुए प्रोफेसर अनामिका कहती हैं, "इंसान के ऊत्तकों और तरल पदार्थों में ट्राइक्लोसैन की मौजूदगी के कारण इंसान के न्यूरो-व्यवहार में परिवर्तन हो सकता है जिसकी वजह से आगे चलकर और भी कई तरह की न्यूरो-डीजेनेरेटिव बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है।" न्यूरो-डीजेनेरेटिव बीमारियां वैसी बीमारियां हैं जिसमें मस्तिष्क के कुछ हिस्से मृत हो जाते हैं। ये कुछ ऐसी बीमारियां हैं जिनका इलाज करना बेहद मुश्किल होता है। इसमें पार्किंसन्स और हनटिंग्टन डिजीज शामिल है।
रोजाना ट्राइक्लोसैन वाले उत्पाद यूज करने से जोखिम अधिक
वैसे तो अब ट्राइक्लोसैन रसोई घर के बर्तनों और कपड़ों में भी पाया जाता है। हालांकि 1960 के दशक में इसका प्रारंभिक इस्तेमाल मेडिकल केयर से जुड़े प्रॉडक्ट्स तक ही सीमित रखा गया था। सामान्य तौर पर देखा जाए तो बहुत कम मात्रा में ट्राइक्लोसैन को हम इंसान आसानी से सहन कर सकते हैं लेकिन ट्राइक्लोसैन-आधारित उत्पादों अगर रोजाना इस्तेमाल किया जाए तो यह लंबे समय में इंसान की सेहत के लिए एक बड़ा जोखिम पैदा कर सकता है। आपको बता दें कि वैसी न्यूरो-डीजेनेरेटिव बीमारियां जिनकी उत्पत्ति के बारे में अब तक कुछ पता नहीं चल पाया है वे दुनियाभर में तेजी से फैल रही हैं और बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित भी कर रही हैं।
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अमेरिका में ट्राइक्लोसैन के इस्तेमाल पर है आशंकि बैन
साल 2017 में अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने ट्राइक्लोसैन के खिलाफ मिले सबूतों की जांच करके उसके इस्तेमाल पर आंशिक रूप से बैन लगा दिया था। हालांकि, भारत में ट्राइक्लोसैन आधारित उत्पादों के इस्तेमाल को लेकर अब तक इस तरह का कोई भी नियम मौजूद नहीं है। इस बारे में प्रोफेसर अनामिका आगे कहती हैं, "स्वीकार्य सीमा के तहत भी इस्तेमाल करने पर ट्राइक्लोसैन विषाक्त साबित हो सकता है और इसकी वजह से इंसानों के न्यूरो-व्यवहार में बदलाव हो सकते हैं। वैसे तो हम अपनी इस स्टडी में ट्राइक्लोसैन के इस्तेमाल को लेकर चेतावनी जारी कर रहे हैं और हमारा सुझाव भी यही है कि भारत में इसके इस्तेमाल को सीमित किया जाए या फिर इस पर बैन लगाया जाए ताकि लंबे समय तक होने वाली क्षति को रोका जा सके।"